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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 47
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
येता॑तृ॒षुर्दे॑व॒त्रा जेह॑माना होत्रा॒विदः॒ स्तोम॑तष्टासो अ॒र्कैः। आग्ने॑ याहिस॒हस्रं॑ देवव॒न्दैः स॒त्यैः क॒विभि॒रृषि॑भिर्घर्म॒सद्भिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । त॒तृ॒षु: । दे॒व॒ऽत्रा । जेह॑माना: । हो॒त्रा॒ऽविद॑: । स्तोम॑ऽतष्टास: । अ॒कै: । आ । अ॒ग्ने॒ । या॒हि॒ । स॒हस्र॑म् । दे॒व॒ऽव॒न्दै: । स॒त्यै: । क॒विऽभि॑: । ऋषि॑ऽभि: । घ॒र्म॒सत्ऽभे॑: ॥३.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
येतातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः। आग्ने याहिसहस्रं देववन्दैः सत्यैः कविभिरृषिभिर्घर्मसद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठये । ततृषु: । देवऽत्रा । जेहमाना: । होत्राऽविद: । स्तोमऽतष्टास: । अकै: । आ । अग्ने । याहि । सहस्रम् । देवऽवन्दै: । सत्यै: । कविऽभि: । ऋषिऽभि: । घर्मसत्ऽभे: ॥३.४७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 47
विषय - किन पितरों के सम्पर्क में
पदार्थ -
१. पितर वे हैं (ये) = जो (तातृषुः) = प्राणिमात्र के हित के लिए अत्यन्त पिपासित होते हैं। (देवत्रा जेहमाना:) = देवों में क्रमश: जानेवाले होते हैं, अर्थात् निरन्तर दैवी सम्पत्ति के अर्जन में लगते हैं। (होत्राविदः) = अग्निहोत्र को अच्छी प्रकार समझनेवाले हैं-यज्ञों के महत्त्व को जानते हैं। (अर्के:) = मन्त्रों के द्वारा (स्तोमतष्टास:) = प्रभु-स्तोत्रों को करनेवाले हैं। २. प्रभु कहते हैं कि हे अग्ने-प्रगतिशील जीव! तू (देववन्दैः) = देव की वन्दना करनेवाले-प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त, (सत्यैः) = सत्य जीवनवाले, (कविभि:) = क्रान्तदर्शी, (ऋषिभिः) = [ऋष् to kill] वासनाओं को विनष्ट करनेवाले (धर्मसद्धिः) = सोमयागों में आसीन होनेवाले-यज्ञशील पितरों के साथ (सहस्त्रम् आयाहि) = [सहस्] आनन्दपूर्वक गतिवाला हो। अथवा इनके सम्पर्क में अपरिमित ज्ञानधन को प्राप्त होनेवाला हो।
भावार्थ - पितर वे ही हैं जो लोकहित के लिए प्रबल कामनावाले, यज्ञशील, प्रभु-स्तवन परायण, ज्ञानी, सत्यवादी व वासनाशून्य हैं। इनके सम्पर्क में आकर हम भी ज्ञानी बनें और प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर चलें।
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