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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 40
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्रीणि॑ प॒दानि॑रु॒पो अन्व॑रोह॒च्चतु॑ष्पदी॒मन्वे॑तद्व्र॒तेन॑। अ॒क्षरे॑ण॒ प्रति॑ मिमीतेअ॒र्कमृ॒तस्य॒ नाभा॑व॒भि सं पु॑नाति ॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑ । प॒दानि॑ । रु॒प: । अनु॑ । अ॒रो॒ह॒त् । चतु॑:ऽपदीम् । अनु॑ । ए॒त॒त् । व्र॒तेन॑ । अ॒क्षरे॑ण । प्रति॑ । मि॒मी॒ते॒ । अ॒र्कम् । ऋ॒तस्य॑ । नाभौ॑ । अ॒भि । सम् । पु॒ना॒ति॒ ॥३.४०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि पदानिरुपो अन्वरोहच्चतुष्पदीमन्वेतद्व्रतेन। अक्षरेण प्रति मिमीतेअर्कमृतस्य नाभावभि सं पुनाति ॥
स्वर रहित पद पाठत्रीणि । पदानि । रुप: । अनु । अरोहत् । चतु:ऽपदीम् । अनु । एतत् । व्रतेन । अक्षरेण । प्रति । मिमीते । अर्कम् । ऋतस्य । नाभौ । अभि । सम् । पुनाति ॥३.४०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 40
विषय - रुपः
पदार्थ -
१. (रुपः) = [रुप् 10 suffer violent pain] अपने को तपस्या की अग्नि में तपानेवाला (ब्रह्मचारी त्रीणि पदानि अनु अरोहत्) = क्रमशः तीनों पदों का आरोहण करता है, सबसे पूर्व तैजस बनता है-तेजस्वी शरीरवाला, द्वितीय स्थान में 'वैश्वानर', सबके प्रति मन में हितार्थ भावनावाला बनता है तथा तृतीय स्थान में 'प्राज्ञ' अच्छी तरह ज्ञान का सम्पादन करनेवाला होता है। व्रतेन-इन तीन पदों पर आरोहण करनेरूप व्रत के द्वारा (चतुष्पदीम् अनु ऐतत्) [ऐत्] = चार पदोंवाली इस 'ऋक्, यजुः साम, अथर्व' रूप वेदवाणी को प्राप्त करता है। २. इस वेदवाणी का अध्ययन करता हुआ यह 'रुप' (अक्षरेण) = 'ओंकार' इस अक्षर के द्वारा [ओमित्यदक्षरमुद्गीथमु पासीत्] (अर्कम्) = अर्चनीय प्रभु को (प्रतिमिमीते) = जानने का प्रयत्न करता है और (ऋतस्य नाभौ) = [ऋत-यज्ञ] यज्ञ के बन्धन में (अभिसंपनाति) = अपने को अन्दर व बाहिर से सम्यक पवित्र करता है। यज्ञों में यह सतत प्रवृत्त रहता है। ये यज्ञ इसे स्वस्थ शरीरवाला व पवित्र मनवाला बनाते हैं। यही अन्दर व बाहिर से पवित्रीकरण है।
भावार्थ - तपस्या की अग्नि में अपने को तपाते हुए हम 'तैजस, वैश्वानर व प्राज्ञ' बनें। इस व्रत के द्वारा 'ऋक्, यजुः साम, अथर्व' रूप वेदवाणी को प्राप्त करें। वेदों के सारभूत 'ओम्' इस अक्षर के जप से प्रभु को जानने का यत्न करें। यज्ञों में बद्ध होते हुए स्वस्थ शरीर व पवित्र मनवाले बनें।
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