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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 34
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ध्रु॑वायां त्वादि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑।लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒वाया॑म् । त्वा॒ । दि॒शि । पु॒रा । स॒म्ऽवृत॑: । स्व॒धाया॑म् ।आ । द॒धा॒मि॒ । बा॒हु॒ऽच्युता॑ । पृ॒थि॒वी । द्याम्ऽइ॑व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्रुवायां त्वादिशि पुरा संवृतः स्वधायामा दधामि बाहुच्युता पृथिवी द्यामिवोपरि।लोककृतः पथिकृतो यजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवायाम् । त्वा । दिशि । पुरा । सम्ऽवृत: । स्वधायाम् ।आ । दधामि । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 34

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! (पुरा संवृतः) = इस शरीर से आच्छादित हुआ-हुआ मैं (त्वा) = आपको (प्राच्यां दिशि) = आगे बढ़ने की दिशा के निमित्त तथा (स्वधायाम्) = आत्मतत्त्व के धारण के निमित्त (आदधामि) = इसप्रकार धारण करता हूँ, (इव) = जैसे (बाहुच्युता) = बाहु से दी गई (पृथिवी) = भूमि उपरि ऊपर (द्याम्) = स्वर्ग को [आकाश को] धारण करती है। प्रभु का धारण हमें अग्नगति में स्थापित करता है और आत्मशक्ति को धारण कराता है। इसी उद्देश्य से हम (लोककृतः) = प्रकाश करनेवाले, (पथिकृतः) = हमारे लिए मागों को बनानेवाले उन पितरों का (यजामहे) = आदर व संग करते हैं, (ये) = जो पितर (इह) = यहाँ (देवानां हुतभागा: स्थ) = देवों के हुत का सेवन करनेवाले हैं, अर्थात् यज्ञशील हैं। इन पितरों का सम्पर्क हमें भी उन जैसा बनाएगा। २. इसीप्रकार (दक्षिणायां दिशि) = दक्षिण दिशा के निमित्त हम प्रभु को धारण करते हैं। धारण किये गये प्रभु हमें दाक्षिण्य प्राप्त कराते हैं-कर्मों में कुशलता प्राप्त कराते हैं। यह कर्मकुशलता ऐश्वर्यवृद्धि का कारण बनती है। यह ऐश्वर्य हमें विलास में न ले-जाए, अत: (प्रतीच्यां दिशि) = [प्रति अञ्च] इस पश्चिम व प्रत्याहार की दिशा के निमित्त प्रभु को हदयों में स्थापित करते हैं। हृदयों में प्रभुस्मरण हमें वासनाओं का शिकार न होने देगा। इसप्रकार (उदीच्यां दिशि) = उदीची दिशा के निमित्त मैं प्रभ को धारण करता हूँ। प्रभुस्मरण से मैं ऊपर और ऊपर उठता चलूँगा। यह उत्कर्ष होता ही चले, अत: (ध्रुवायां दिशि) = ध्रुवता की दिशा के निमित्त प्रभु को धारण करूँ और इस ध्रुवता के द्वारा (ऊर्ध्वायां दिशि) = ऊर्ध्व दिशा के निमित्त प्रभु को धारण करता हूँ। हृदयस्थ प्रभु मुझे सर्वोच्च स्थिति में प्राप्त कराएंगे। ३.अथवा इन सब दिशाओं में प्रभु की महिमा व सत्ता का अनुभव करते हुए उपासक कह उठता है-आगे-पीछे सब ओर से मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप अनन्तवीर्य व अमित विक्रम हैं। सबमें समाये हुए है-आप सर्व है। वस्तुत: ऐसा अनुभव करनेवाला व्यक्ति ही प्राणतत्व का धारण करनेवाला होता है।

    भावार्थ - इस शरीर को प्रात करके इसे स्वस्थ रखते हुए हम 'अग्रगति, दाक्षिण्य, विषयव्यावृत्ति, उन्नति, स्थिरता व चरमोत्कर्ष' को प्रास करते हुए आत्मतत्त्व के धारण के निमित्त प्रभु का स्मरण करें। सब दिशाओं में प्रभु की महिमा को देखते हुए ही हम 'स्व-धा' में स्थापित होंगे। इसी उद्देश्य से उत्तम पितरों के सम्पर्क में विनीतता से ज्ञान को बढ़ाने के लिए यत्नशील हों।

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