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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 66
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
नाके॑सुप॒र्णमुप॒ यत्पत॑न्तं॒ हृ॒दा वेन॑न्तो अ॒भ्यच॑क्षत त्वा। हिर॑ण्यपक्षं॒वरु॑णस्य दू॒तं य॒मस्य॒ योनौ॑ शकु॒नं भु॑र॒ण्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठनाके॑ । सु॒ऽप॒र्णम् । उप॑ । यत् । पत॑न्तम् । हृ॒दा । वेन॑न्त: । अ॒भि॒ऽअच॑क्षत । त्वा॒ । हिर॑ण्यऽयक्षम् । वरु॑णस्य । दू॒तम । य॒मस्य॑ । योनौ॑ । श॒कु॒नम् । भु॒र॒ण्यम् ॥३.६६॥
स्वर रहित मन्त्र
नाकेसुपर्णमुप यत्पतन्तं हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा। हिरण्यपक्षंवरुणस्य दूतं यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठनाके । सुऽपर्णम् । उप । यत् । पतन्तम् । हृदा । वेनन्त: । अभिऽअचक्षत । त्वा । हिरण्यऽयक्षम् । वरुणस्य । दूतम । यमस्य । योनौ । शकुनम् । भुरण्यम् ॥३.६६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 66
विषय - प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. नाके [न अकम्] आनन्दमयस्वरूप में अथवा मोक्षधाम में (उपपतन्तम्) = समीपता से प्रास होते हुए (सुपर्णम्) = उत्तमता से पालन करनेवाले त्वा आपको, हे प्रभो। (यत्) = जब (हृदा वेनन्त:) हृदय से आपकी प्राप्ति की कामना करते हुए लोग (अभ्यचक्षत) = देखते हैं, तब वे अनुभव करते हैं कि (हिरण्यपक्षम्) = [पक्ष परिग्रहे] आप ज्ञान का परिग्रह करनेवाले हैं-ज्ञानस्वरूप हैं। (वरुणस्य दूतम्) = द्वेषनिवारण के दूत हैं, निढेषता का उपदेश देते हैं। (यमस्य योनौ शकुनम्) = संयत जीवनवाले पुरुष के शरीरगृह में शक्ति का संचार करनेवाले हैं। (भुरण्युम्) = सबका भरण करनेवाले हैं।
भावार्थ - जीव को मोक्षधाम में प्रभु की समीपता प्राप्त होती है। जब जीव हृदय से प्रभ प्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता है तब प्रभु-दर्शन कर पाता है। वह देखता है कि प्रभ ज्ञानस्वरूप हैं, निषता का सन्देश दे रहे हैं, संयमी को शक्तिशाली बनाते हैं और सबका भरण करनेवाले हैं।
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