Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
    सूक्त - भूमि देवता - प्रस्तार पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उच्छ्व॑ञ्चस्वपृथिवि॒ मा नि बा॑धथाः सूपाय॒नास्मै॑ भव सूपसर्प॒णा। मा॒ता पु॒त्रं यथा॑सि॒चाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । श्व॒ञ्च॒स्व॒ । पृ॒थि॒व‍ि॒ । मा । नि । वा॒ध॒था॒: । सु॒ऽउ॒पा॒य॒ना । अ॒स्मै॒ । भ॒व॒ । सु॒ऽउ॒प॒स॒र्प॒णा । मा॒ता । पु॒त्रम् । यथा॑ । सि॒चा । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥३.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्छ्वञ्चस्वपृथिवि मा नि बाधथाः सूपायनास्मै भव सूपसर्पणा। माता पुत्रं यथासिचाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । श्वञ्चस्व । पृथिव‍ि । मा । नि । वाधथा: । सुऽउपायना । अस्मै । भव । सुऽउपसर्पणा । माता । पुत्रम् । यथा । सिचा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥३.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 50

    पदार्थ -
    १. हे (पृथिवि) = अपनी सन्तानों की शक्तियों का विस्तार करनेवाली मातः! त उदासी को छोड़कर (उत्सु अञ्चस्व) = उत्तमता से गति करनेवाली हो। (मा निबाधथा:) = व्यर्थ के शोक से अपने को पीड़ित मत कर। (अस्मै) = अपनी इस सन्तान के लिए (सूपायना भव) = सुगमता से समीप प्राप्त होनेवाली हो। (स उपसर्पणा) = बच्चे तेरे समीप सुगता से प्राप्त हो सकें। २. हे (भूमे) = भूमिमातः! तु भी (एनम्) = साथी के चले जाने से दुःखित इस जन को (अभि ऊर्णुहि) = अभितः आच्छादित करनेवाली हो, अर्थात् इसे न तो खानपान की कमी हो, न ही इसके मानस उत्साह में कमी आये। इसको तू इसप्रकार सुरक्षित कर (यथा) = जैसे (माता) = माता (पुत्रम्) = पुत्र को (सिचा) = वस्त्र प्रान्त से ढककर सुरक्षित कर लेती है।

    भावार्थ - माता शोक से अपने को पीड़ित न करती हुई बच्चों के पालन में आनन्द का अनुभव करे। वह बच्चों के लिए 'सूपायना व सूपसर्पणा' हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top