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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 44
    सूक्त - पितरगण देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अग्नि॑ष्वात्ताःपितर॒ एह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः। अ॒त्तो ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिषि॑र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं दधात ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नि॑ऽस्वात्ता: । पि॒त॒र॒: । आ । इ॒ह । ग॒च्छ॒त॒ । सद॑:ऽसद: । स॒द॒त॒ । सु॒ऽप्र॒नी॒त॒य॒: । अ॒त्तो इति॑ । ह॒वींषि॑ । प्रऽय॑तानि । ब॒र्हिषि॑ । र॒यिम् । च॒ । न॒: । सर्व॑ऽवीरम् । द॒धा॒त॒ ॥३.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निष्वात्ताःपितर एह गच्छत सदःसदः सदत सुप्रणीतयः। अत्तो हवींषि प्रयतानि बर्हिषिरयिं च नः सर्ववीरं दधात ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निऽस्वात्ता: । पितर: । आ । इह । गच्छत । सद:ऽसद: । सदत । सुऽप्रनीतय: । अत्तो इति । हवींषि । प्रऽयतानि । बर्हिषि । रयिम् । च । न: । सर्वऽवीरम् । दधात ॥३.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 44

    पदार्थ -
    १. (अग्निषु आत्ता:) = अग्नियों के चरणों में जिन्होंने अत्याधिक ज्ञान प्राप्त किया है-'माता. पिता व आचार्यो' से 'चरित्र, शिष्टाचार व ज्ञान'-सम्पन्न बने हैं, ऐसे (पितर:) = पितरो। आप (इह आगच्छत) = यहाँ हमारे जीवन में आइए। आप (सदःसद: सदत) = प्रत्येक सभा में आकर बैठिए। (सुप्रणीतयः) = आप हमें उत्कृष्ट मार्ग से ले-चलनेवाले हैं। २. आप (बर्हिषि) = इन यज्ञों में (प्रयतानि) = पवित्र (हवींषि अत्त उ) = हवियों को ही निश्चय से खानेवाले होओ। आप सदा पवित्र भोजन को ही यज्ञशेष के रूप में ग्रहण करते हैं (च) = और आप (न:) = हमारे सब सन्तानों को (सर्ववीरम) = सबल बनानेवाले दधात होओ। वस्तुतः पितर सन्तानों को मेल का पाठ पढ़ाते हुए उन्हें सशक्त व सम्पन्न बनाते हैं।

    भावार्थ - जिन्होंने 'माता, पिता व आचार्यों' से स्वयं अत्यधिक ज्ञान प्राप्त किया है, उन पितरों से हमें भी उसीप्रकार ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा मिले। घरों में आसीन होकर ये पितर सन्तानों का सुप्रणयन करें। पितरों से प्रेरणा प्राप्त करके हम पवित्र यज्ञशेष का ग्रहण करनेवाले बनें। 'वीरता व धन' से युक्त हों।

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