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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 21
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अधा॒ यथा॑ नःपि॒तरः॒ परा॑सः प्र॒त्नासो॑ अग्न ऋ॒तमा॑शशा॒नाः। शुचीद॑य॒न्दीध्य॑त उक्थ॒शासः॒क्षामा॑ भि॒न्दन्तो॑ अरु॒णीरप॑ व्रन् ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । यथा॑ । न॒: । पि॒तर॑: । परा॑स: । प्र॒त्नास॑: । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒तम् । आ॒ऽश॒शा॒ना: । शुचि॑ । इत् । अ॒य॒न् । दीध्य॑त: । उ॒क्थ॒ऽशस॑: । क्षाम॑ । भि॒न्दन्त॑: । अ॒रु॒णी: । अप॑ । व्र॒न् ॥३.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा यथा नःपितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशशानाः। शुचीदयन्दीध्यत उक्थशासःक्षामा भिन्दन्तो अरुणीरप व्रन् ॥
स्वर रहित पद पाठअध । यथा । न: । पितर: । परास: । प्रत्नास: । अग्ने । ऋतम् । आऽशशाना: । शुचि । इत् । अयन् । दीध्यत: । उक्थऽशस: । क्षाम । भिन्दन्त: । अरुणी: । अप । व्रन् ॥३.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 21
विषय - यज्ञों द्वारा 'पवित्र व दीप्त लोक' की प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (अधा) = अब यथा-जैसे न: हमारे परासः उत्कृष्ट जीवनवाले प्रत्नासः-पुराणे पितर:-पितर ऋतम् (आशशाना:) = यज्ञ व सत्य को प्रास करते हुए (इत) = निश्चय से (शचि अयन) = दीप्तलोक को प्राप्त करनेवाले हुए, उसीप्रकार अब भी हमारे (दीध्यतः) = ज्ञान की दीप्तिवाले, (उक्थशास:) = प्रभु के स्तोत्रों का शंसन करनेवाले पितर (क्षाम भिन्दन्तः) = [क्षमा रात्रि: तत्सम्बन्धि तमः पापम्] अविद्यान्धकारवाली रात्रि के सम्बन्धी अज्ञानान्धकार को विदीर्ण करते हुए (अरुणी:) = ज्ञान की तेजस्वी किरणों को (अपनन्) = विवृत करनेवाले होते हैं। ये हमारे लिए अन्धकार को दूर करके प्रकाश को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - पितर यज्ञों को करते हुए पवित्र, दीप्तलोक को प्रात करते हैं। वे ज्ञानी व प्रभु के स्तोता पितर हमारे लिए अज्ञानान्धकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश प्रास कराएँ।
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