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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 68
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अ॑पू॒पापि॑हितान्कु॒म्भान्यांस्ते॑ दे॒वा अधा॑रयन्। ते ते॑ सन्तु स्व॒धाव॑न्तो॒मधु॑मन्तो घृत॒श्चुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पू॒पऽअ॑पिहितान् । कु॒म्भान् । यान् । ते॒ । दे॒वा: । अधा॑रयन् । ते । ते॒ । स॒न्तु॒ । स्व॒धाऽव॑न्त: । मधु॑ऽमन्त: । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: ॥३.६८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपूपापिहितान्कुम्भान्यांस्ते देवा अधारयन्। ते ते सन्तु स्वधावन्तोमधुमन्तो घृतश्चुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपूपऽअपिहितान् । कुम्भान् । यान् । ते । देवा: । अधारयन् । ते । ते । सन्तु । स्वधाऽवन्त: । मधुऽमन्त: । घृतऽश्चुत: ॥३.६८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 68

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जीवनीशक्ति व ज्योति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हमारा भोजन उत्तम हो। भोजन ही शक्ति व तीब्र बुद्धि को प्राप्त कराने का साधन है, अतः भोजन के विषय में कहते हैं कि (अपूपापिहितान) = [अपूपाः अपिहिता येष] जिनमें अविशीर्ण सुगन्धित [पूयी विशरणे दुर्गन्धे च] भोज्य पदार्थ ढककर रखे जाते हैं। (यान कम्भान्) = जिन कुम्भों को (देवा:) = व्यवहारकुशल शिल्पियों ने (अधारयन्) = तेरे लिए धारण किया है। (ते) = तेरे लिए (ते) = वे सब कुम्भ (स्वधावन्त:) = आत्मधारणयोग्य अनोंवाले, (मधुमन्त:) = मधुवाले [शहद] (घृतश्चुत:) = और घृत स्रवण करनेवाले हों।

    भावार्थ - हमारे भोजन-पान अपूपों से पूर्ण हों-उनमें ऐसे भोज्य-पदार्थ हों जो शीघ्र विशीर्ण व दुर्गन्धित नहीं हो जाते। शरीर के धारण के योग्य अन्नों से वे परिपूर्ण हों। उनमें शहद हों, वे घृतपूर्ण हों।

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