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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
प्र च्य॑वस्वत॒न्वं सं भ॑रस्व॒ मा ते॒ गात्रा॒ वि हा॑यि॒ मो शरी॑रम्। मनो॒निवि॑ष्टमनु॒संवि॑शस्व॒ यत्र॒ भूमे॑र्जु॒षसे॒ तत्र॑ गच्छ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । च्य॒व॒स्व॒ । त॒न्व॑म् । सम् । भ॒र॒स्व॒ । मा । ते॒ । गात्रा॑ । वि । हा॒यि॒ । मो इति॑ । शरी॑रम् । मन॑: । निऽवि॑ष्टम् । अ॒नु॒ऽसंवि॑शस्व । यत्र॑ । भूमे॑: । जु॒षसे॑ । तत्र॑ । ग॒च्छ॒ ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र च्यवस्वतन्वं सं भरस्व मा ते गात्रा वि हायि मो शरीरम्। मनोनिविष्टमनुसंविशस्व यत्र भूमेर्जुषसे तत्र गच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । च्यवस्व । तन्वम् । सम् । भरस्व । मा । ते । गात्रा । वि । हायि । मो इति । शरीरम् । मन: । निऽविष्टम् । अनुऽसंविशस्व । यत्र । भूमे: । जुषसे । तत्र । गच्छ ॥३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
विषय - स्वस्थ शरीर, रुच्यनुकूल कार्य, प्रिय निवासस्थान
पदार्थ -
१. (प्रच्यवस्व) = [प्रच्यु drive, urge on] तू अपने को आगे प्रेरित कर । सबसे प्रथम (तन्वं संभरस्व) = शरीर का सम्भरण करनेवाला बन। शरीर में उत्पन्न हो गई सब न्यूनताओं को दूर कर । (ते गात्रा मा विहायि) = तेरे अंग तुझे न छोड़ जाएँ-उनमें किसी प्रकार की कमी न आ जाए (मा उ शरीरम्) = और न ही तेरा शरीर छूट जाए-तू स्वस्थ बना रहे। २. अब स्वस्थ बनकर जहाँ तेरा (मनः निविष्टम्) = मन लगे (अनु संविशस्व) = उसके अनुसार कार्यक्षेत्र में प्रवेश कर। आजीविका के लिए 'ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्यों' के योग्य जिस भी कार्य में तेरा मन लगे उस कार्य को तू करनेवाला बन। (यत्र भूमेः जुषसे) = जिस भूप्रदेश को तू प्रेम करता है (तत्र गच्छ) = वहाँ जा। जिस भूभाग में तुझे रहना अच्छा लगे, वहाँ तू अपना निवासस्थान बना।
भावार्थ - संसार में आलस्य को छोड़कर हम आगे बढ़ें। शरीर के सब अंगों को स्वस्थ रखें। आजीविका के लिए रुचि के अनुसार कार्य का चुनाव करें। जो भूप्रदेश प्रिय हो, वहाँ अपना निवासस्थान बनाएँ।
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