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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 73
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ए॒तदा रो॑ह॒ वय॑उन्मृजा॒नः स्वा इ॒ह बृ॒हदु॑ दीदयन्ते। अ॒भि प्रेहि॑ मध्य॒तो माप॑ हास्थाःपितॄ॒णां लो॒कं प्र॑थ॒मो यो अत्र॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । आ । रो॒ह॒ । वय॑: । उ॒त्ऽमृ॒जा॒न: । स्वा: । इ॒ह । बृ॒हत् । ऊं॒ इति॑ । दी॒द॒य॒न्ते॒ । अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । म॒ध्य॒त: । मा ।अप॑ । हा॒स्था॒: । पि॒तॄणाम् । लो॒कम् । प्र॒थ॒म:। य: । अत्र॑ ॥३.७३॥
स्वर रहित मन्त्र
एतदा रोह वयउन्मृजानः स्वा इह बृहदु दीदयन्ते। अभि प्रेहि मध्यतो माप हास्थाःपितॄणां लोकं प्रथमो यो अत्र ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । आ । रोह । वय: । उत्ऽमृजान: । स्वा: । इह । बृहत् । ऊं इति । दीदयन्ते । अभि । प्र । इहि । मध्यत: । मा ।अप । हास्था: । पितॄणाम् । लोकम् । प्रथम:। य: । अत्र ॥३.७३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 73
विषय - ज्ञाननदी में जीवन का शोधन व उत्थान
पदार्थ -
१.हे जीव । गतमन्त्र के अनुसार पितरों से प्रवाहित होनेवाली ज्ञाननदी [सरस्वती] में (एतत् वयः) = अपने इस जीवन को (उन्मृजान:) = शुद्ध करता हुआ आरोह-उन्नति की दिशा में आरोहण कर-ऊपर उठ। तेरे (स्वा:) = अपने पितर [बन्धु-बान्धव] (इह) = यहाँ (उ) = निश्चय से (बृहदु) = खूब ही (दीदयन्ते) = ज्ञान से दीत हो रहे हैं। २. तू भी समय आने पर मध्यत: इस गृहस्थ जीवन के मध्य से (अभिप्रेहि) = वानप्रस्थ की ओर चल। (पितृणां लोकं मा अपहास्था:) = पितरों के लोक को दूर से मत छोड़। तू भी पितरों के लोक में आनेवाला बन। (य:) = जो पितृलोक (अत्र) = यहाँ जीवन में (प्रथमः) = सर्वप्रथम लोक है-मुख्य है, अथवा विस्तारवाला है [प्रथ विस्तारे]। इसमें गृहस्थ के संकुचित क्षेत्र से ऊपर उठकर एक व्यक्ति विशाल अन्तरिक्ष में प्रवेश करता है।
भावार्थ - पितरों से प्रवाहित होनेवाले ज्ञाननदी में अपने जीवन को शुद्ध करते हुए हम भी ऊपर उठें। वह भी समय आये जब हम भी गृहस्थ से ऊपर उठकर वनस्थ हों। इस पितृलोक को हम उपेक्षित न करें। यह लोक हमें विशाल अन्तरिक्ष में ले-जाता है।
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