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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 71
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - उपरिष्टात् बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आ र॑भस्वजातवेद॒स्तेज॑स्व॒द्धरो॑ अस्तु ते। शरी॑रमस्य॒ सं द॒हाथै॑नं धेहि सु॒कृता॑मुलो॒के ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । र॒भ॒स्व॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तेज॑स्वत् । हर॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । शरी॑रम् । अ॒स्य॒ । सम् । द॒ह॒ । अथ॑ । ए॒न॒म् । धे॒हि । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒के ॥३.७१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रभस्वजातवेदस्तेजस्वद्धरो अस्तु ते। शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामुलोके ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रभस्व । जातऽवेद: । तेजस्वत् । हर: । अस्तु । ते । शरीरम् । अस्य । सम् । दह । अथ । एनम् । धेहि । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोके ॥३.७१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 71

    पदार्थ -
    १. हे (जातवेदः) = ज्ञानिन्-गतमन्त्र के अनुसार मुक्ति से लौटे हुए पुरुष! (आरभस्व) = तू संसार में अपने कार्य का आरम्भ कर । (ते) = तेरी (हर:) = अविद्यान्धकार को नष्ट करने की शक्ति (तेजस्वत् अस्तु) = तेजवाली हो, अर्थात् तू ज्ञान-प्रसार के कार्य में खूब समर्थ हो। २. (अस्य) = इस (प्रजानन) = के (शरीरम्) = शरीर को (संदह) = सम्यक् दग्ध कर तपस्या की अग्नि में परिपक्व कर और (अथ) = अब (एनम्) = इसको (उ) = निश्चय से (सुकृताम्) = पुण्यशील लोगों के (लोके) = लोक में (धेहि) = स्थापित कर। इन्हें राष्ट्र के उत्तम वर्ग का अंग बना।

    भावार्थ - राष्ट्र में ज्ञानप्रसार में प्रवृत्त आचार्यों का कर्तव्य है कि अपने शिष्यों को तीन तपस्वी बनाकर-उनमें ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करके, उन्हें राष्ट्र का उत्तम अंग बनाएँ।

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