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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 37
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - एकवसाना आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उ॑द॒पूर॑सिमधु॒पूर॑सि वात॒पूर॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒ऽपू: । अ॒सि॒ । म॒धु॒ऽपू: । अ॒सि॒ । वा॒त॒ऽपू: । अ॒सि॒ ॥३.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
उदपूरसिमधुपूरसि वातपूरसि ॥
स्वर रहित पद पाठउदऽपू: । असि । मधुऽपू: । असि । वातऽपू: । असि ॥३.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 37
विषय - 'उदपू:-मधुपूः-वातपूः' धर्ता प्रभु
पदार्थ -
१.हे प्रभो! आप (धर्ता असि) = हम सबका धारण करनेवाले हैं। आप अपने उपासकों के शरीरों को स्वस्थ करते हैं। उपासना से हमारी वृत्ति विलास की ओर नहीं झुकती और परिणामत: हम स्वस्थ बने रहते हैं। (धरुणः असि) = आप सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्वों का भी धारण करनेवाले हैं आप हमारे मनों व बद्धियों को भी सुरक्षित रखते हैं। आपकी उपासना से हमारे मन निर्मल व बुद्धियाँ सूक्ष्मार्थनाहिणी बनती हैं। (वंसगः असि) = हे प्रभो! आप हमें [वंसानां बननीयगतीनां गमयता] सम्भजनीय, सुन्दर व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले हैं। प्रभु का उपासक सदा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होता है। २.हे प्रभो! आप (उदपः असि) = [उदकस्य पुरयिता] हमारे शरीरों में रेत:कणों [उदक] के पूरयिता हैं। इन रेत:कणों के रक्षण के द्वारा (मधुपू: असि) = माधुर्य के पूरयिता हैं। विलासी व शक्ति का अपव्य करनेवाले लोग ही कटुवचनों का प्रयोग करते हैं। रेत:कणों के रक्षण व माधुर्य के द्वारा आप (वातपू: असि) = [वातस्य पूरयिता] वात का-प्राणशक्ति का पूरण करनेवाले हैं। रेत:कणों का अपव्य व कटुता प्राणशक्ति का संहार करती है।
भावार्थ - प्रभु हमारे शरीरों को धारण करते हैं-मन व बुद्धि का भी धारण करते हैं। इसप्रकार वे हमें 'स्वस्थ शरीर, मन व बुद्धि' वाला बनाकर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करते है। प्रभु हमारे रेत:कणों का व माधुर्य का पूरण करके प्राणशक्ति का पूरण करते हैं।
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