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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 61
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    वि॒वस्वा॑न्नो॒अभ॑यं कृणोतु॒ यः सु॒त्रामा॑ जी॒रदा॑नुः सु॒दानुः॑। इ॒हेमे वी॒रा ब॒हवो॑भवन्तु॒ गोम॒दश्व॑व॒न्मय्य॑स्तु पु॒ष्टम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒वस्वा॑न् । न॒: । अभय॑म् । कृ॒णो॒तु॒ । य: । सु॒ऽत्रामा॑ । जी॒रऽदा॑नु: । सु॒ऽदानु॑: । इ॒ह । इ॒मे । वी॒रा: । ब॒हव॑: । भ॒व॒न्तु॒ । गोऽम॑त् । अश्व॑ऽवत् । मयि॑ । अ॒स्तु॒ । पु॒ष्टम् ॥३.६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विवस्वान्नोअभयं कृणोतु यः सुत्रामा जीरदानुः सुदानुः। इहेमे वीरा बहवोभवन्तु गोमदश्ववन्मय्यस्तु पुष्टम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विवस्वान् । न: । अभयम् । कृणोतु । य: । सुऽत्रामा । जीरऽदानु: । सुऽदानु: । इह । इमे । वीरा: । बहव: । भवन्तु । गोऽमत् । अश्वऽवत् । मयि । अस्तु । पुष्टम् ॥३.६१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 61

    पदार्थ -
    १. (विवस्वान्) = ज्ञान की किरणोंवाले सूर्यसम ज्योतिरूप ब्रह्म (न:) = हमारे लिए (अभयं कृणोतु) = मरणजनितभीतिराहित्य को करे। वह विवस्वान्, (यः) = जोकि (सुत्रामा) = सम्यक् रक्षण करनेवाला है-हमें वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देता। इसप्रकार जो जीरदानु: हमारे जीवन का कर्ता है और सुदानु: सब उत्तमताओं को प्राप्त करनेवाला है। हम प्रभु की उपासना करनेवाले बनें। प्रभु हमारे कवच होंगे और हमें न तो मृत्यु का भय होगा न वासनाओं के आक्रमण का। २. (इह) = यहाँ-हमारे घर में (इमे) = ये (वीरा:) = वीर सन्तान (बहवः भवन्तु) = [बृहि वृद्धौ-हते] वृद्धिशील हों-हमारे सन्तान वीर व वृद्धिशील हों और (मयि) = मुझमें (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला, (अश्ववत्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाला (पुष्टम्) = अंग-प्रत्यंग का पोषण (अस्तु) = हो। मेरे सब अंग सुपुष्ट हों और मेरी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मन्द्रियों प्रशस्त हों।

    भावार्थ - प्रभु का उपासन हमें निर्भय बनाए। प्रभु हमारे रक्षक हों। हमारे सन्तान वृद्धिशील व वीर हों। हमारे अंग-प्रत्यंग पुष्ट हों, हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ प्रशस्त हों।

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