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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - सतः पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
आ यू॒थेव॑क्षु॒मति॑ प॒श्वो अ॑ख्यद्दे॒वानां॒ जनि॒मान्त्यु॒ग्रः।मर्ता॑सश्चिदु॒र्वशीर॑कृप्रन्वृ॒धे चि॑द॒र्य उप॑रस्या॒योः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यू॒थाऽइ॑व । क्षु॒ऽमति॑ । प॒श्व: । अ॒ख्य॒त् । दे॒वाना॑म् । जनि॑म । अन्ति॑ । उ॒ग्र: । मर्ता॑स: । चि॒त् । उ॒र्वशी॑: । अ॒कृ॒प्र॒न् । वृ॒धे । चि॒त् । अ॒र्य: । उप॑रस्य । आ॒यो: ॥३.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यूथेवक्षुमति पश्वो अख्यद्देवानां जनिमान्त्युग्रः।मर्तासश्चिदुर्वशीरकृप्रन्वृधे चिदर्य उपरस्यायोः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यूथाऽइव । क्षुऽमति । पश्व: । अख्यत् । देवानाम् । जनिम । अन्ति । उग्र: । मर्तास: । चित् । उर्वशी: । अकृप्रन् । वृधे । चित् । अर्य: । उपरस्य । आयो: ॥३.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
विषय - उपासना से लाभ
पदार्थ -
१. (इव) = जैसे (क्षमति) = अन्नवाले स्थान में [चरागाह में] एक व्यक्ति (पश्वः यूथा) = पशुओं के झुण्ड को (आ अख्यत्) = समन्तात् देखता है, इसीप्रकार एक उपासक (अन्ति) = उस प्रभु के समीप (देवानां जनिम) = देवों के विकास [प्रादुर्भाव] को देखता है, अर्थात् जैसे एक चरागार में पशु संघ उपस्थित होता है, इसीप्रकार प्रभु की उपासना में दिव्यगण उपस्थित होते हैं। इनकी उपस्थिति से यह उपासक (उग्रः) = बड़ा तेजस्वी व दीत बनता है। २. इस उपासना के द्वारा (मर्तास:चित्) = ये मरणधर्मा पुरुष-आजतक विषयों के पीछे मरनेवाले ये पुरुष (उर्वशी: अकृप्रन्) = [उरु वश्ये अस्याः] अपने को महान् वशीकरणबाला व समर्थ बनाते हैं। सामान्य मनुष्य, उपासना के द्वारा अपने पर शासन करनेवाला व शक्तिशाली बन जाता है। (अर्य:) = [स्वामी] यह जितेन्द्रिय पुरुष (उपरस्य) = [उप्रस्य] बीजवपन द्वारा उत्पन्न हुई हुई अपनी (आयो:) = सन्तान की (वृधे चित्) = निश्चय से वृद्धि के लिए होता है।
भावार्थ - उपासना से [१] दिव्यगुणों का वर्धन होता है [२] मनुष्य जितेन्द्रिय बनता है [३] सन्तानों को उत्तम बना पाता है।
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