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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 64
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् पथ्यापङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आ रो॑हत॒दिव॑मुत्त॒मामृष॑यो॒ मा बि॑भीतन। सोम॑पाः॒ सोम॑पायिन इ॒दं वः॑ क्रियतेह॒विरग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रो॒ह॒त॒ । दिव॑म् । उ॒त्ऽत॒माम् । ऋष॑य: । मा । बि॒भी॒त॒न॒ । सोम॑ऽपा: । सोम॑ऽपायिन: । इ॒दम् । व॒: । क्रि॒य॒ते॒ । ह॒वि: । अग॑न्म । ज्योति॑: । उ॒त्ऽत॒मम् ॥३.६४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोहतदिवमुत्तमामृषयो मा बिभीतन। सोमपाः सोमपायिन इदं वः क्रियतेहविरगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रोहत । दिवम् । उत्ऽतमाम् । ऋषय: । मा । बिभीतन । सोमऽपा: । सोमऽपायिन: । इदम् । व: । क्रियते । हवि: । अगन्म । ज्योति: । उत्ऽतमम् ॥३.६४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 64

    पदार्थ -
    १. हे (ऋषयः) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले [ऋष् to kill] ज्ञानियो! (उत्तमा दिवम् आरोहत) = सर्वोत्कृष्ट प्रकाशमय लोक में आरोहण करो। पृथिवी से अन्तरिक्ष में तथा अन्तरिक्ष से धुलोक में तुम्हारा आरोहण हो। (मा बिभीतन) = मत डरो-भयभीत न होओ। दैवी सम्पत्ति में 'अभय' का ही प्रथम स्थान है। ज्ञानाग्नि में पाप के भस्म हो जाने पर भय का तो प्रश्न ही नहीं रहता। २. आप (सोमपा:) = सोम का रक्षण करनेवाले हो। (सोमपायिन:) = औरों को भी सोमपान की प्रेरणा देनेवाले हों। हमसे भी हे सोमपायी ऋषियो! (व:) = आपकी (इदम्) = यह (हवि:) = दानपूर्विका अदन क्रिया-यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति (क्रियते) = की जाती है। हम भी आपकी भाँति हवि का सेवन करनेवाले बनते हैं और (उत्तमं ज्योतिः अगन्म) = सर्वोत्तम ज्योति परमात्मा को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ - हम पृथिवी से अन्तरिक्ष में व अन्तरिक्षक से द्युलोक में ऊपर और ऊपर उठनेवाले हों, निर्भीक बनें। सोम का शरीर में रक्षण करें, औरों को भी इसी बात के लिए प्रेरित करें। 'हवि' का-दानपूर्वक अदन को स्वीकार करते हुए उत्तम ज्योति को प्राप्त करें।

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