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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 46
ये नः॑ पि॒तुःपि॒तरो॒ ये पि॑ताम॒हा अ॑नूजहि॒रे सो॑मपी॒थं वसि॑ष्ठाः। तेभि॑र्य॒मः सं॑ररा॒णोह॒वींष्यु॒शन्नु॒शद्भिः॑ प्रतिका॒मम॑त्तु ॥
स्वर सहित पद पाठये । न॒: । पि॒तु: । पि॒तर॑: । ये । पि॒ता॒म॒हा: । अ॒नु॒ऽज॒हि॒रे । सो॒म॒ऽपी॒थम् । वसि॑ष्ठा: । तेभि॑: । य॒म: । स॒म्ऽर॒रा॒ण: । ह॒वींषि॑ । उ॒शन् । उ॒शत्ऽभि॑: । प्र॒ति॒ऽका॒मम् । अ॒त्तु॒ ॥३.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
ये नः पितुःपितरो ये पितामहा अनूजहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। तेभिर्यमः संरराणोहवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
स्वर रहित पद पाठये । न: । पितु: । पितर: । ये । पितामहा: । अनुऽजहिरे । सोमऽपीथम् । वसिष्ठा: । तेभि: । यम: । सम्ऽरराण: । हवींषि । उशन् । उशत्ऽभि: । प्रतिऽकामम् । अत्तु ॥३.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 46
विषय - रमणात्मक पठन, यज्ञशेष का अदन
पदार्थ -
१. (ये) = जो (न:) = हमारे (पितुः पितर:) = पिताजी के भी पितर है, (ये) = जो (पितामहः) = हमारे पितामह हैं, वे (वसिष्टा:) = काम-क्रोध को वशीभूत करके अत्यन्त उत्तम निवासवाले बने हैं। (सोमपीथम् अनूजाहिरे) = ये सोम पान को अनुक्रमेण आत्मसात् करते हैं। सोम का पान ही उन्हें उत्तम निवासवाला बनाता है। २. (तेभि:) = उन पितरों के साथ (यमः) = संयत जीवनवाला विद्यार्थी (संरराण:) = सम्यक् क्रीड़ा करता हुआ-क्रीड़ा में ही सब-कुछ सीखता हुआ, (हवींषि उशन्) = हवियों को चाहता हुआ (उशद्धिः) = हित चाहनेवाले आचार्यों के साथ (प्रतिकामम् अत्तु) = जब-जब शरीर को इच्छा हो, अर्थात् आवश्यकता अनुभव हो, तब-तब इस हवीरूप भोजन को खाये। ३. यहाँ दो बातें स्पष्ट है-पहली तो यह कि पढ़ाने का प्रकार इतना रुचिकर हो कि विद्यार्थियों को पढ़ाई खेल ही प्रतीत हो। दूसरी बात यह कि हम भोजन तभी करें जब शरीर को आवश्यकता हो। वह भी त्यागपूर्वक यज्ञ करके यज्ञशेष का ही ग्रहण करें।
भावार्थ - हमें पितर रोचकता से ज्ञान देनेवाले हों। हम यज्ञों के प्रति कामनावाले हों। भोजन को आवश्यकता होने पर यज्ञशेष के रूप में ही ग्रहण करें।
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