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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    वर्च॑सा॒ मांसम॑नक्त्व॒ग्निर्मे॒धां मे॒ विष्णु॒र्न्यनक्त्वा॒सन्। र॒यिं मे॒ विश्वे॒ निय॑च्छन्तु दे॒वाः स्यो॒ना मापः॒ पव॑नैः पुनन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वर्च॑सा । माम् । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । अ॒ग्नि: । मे॒धाम् । मे॒ । विष्णु॑: । नि । अ॒न॒क्तु॒ । आ॒सन् । र॒यिम् । मे॒ । विश्वे॑ । नि । य॒च्छ॒न्तु॒ । दे॒वा: । स्यो॒ना: । मा॒ । आप॑: । पव॑नै: । पु॒न॒न्तु॒ ॥३..११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्चसा मांसमनक्त्वग्निर्मेधां मे विष्णुर्न्यनक्त्वासन्। रयिं मे विश्वे नियच्छन्तु देवाः स्योना मापः पवनैः पुनन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्चसा । माम् । सम् । अनक्तु । अग्नि: । मेधाम् । मे । विष्णु: । नि । अनक्तु । आसन् । रयिम् । मे । विश्वे । नि । यच्छन्तु । देवा: । स्योना: । मा । आप: । पवनै: । पुनन्तु ॥३..११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. (अग्नि:) = वह अग्रणी प्रभु (माम्) = मुझे (वर्चसा) = वर्चस्-तेजस्विता से (समनक्तु) = संयोजित करे। अग्रगति की भावना मुझे तेजस्वी बनाए। (विष्णु:) = वह सर्वव्यापक प्रभु (मे आसन्) = मेरे मुख में (मेधां नि अनतु) = बुद्धिपूर्वक बोली गई उत्तम वाणी को निश्चय से संयोजित करे। व्यापक व उदार हृदयवाला बनता हुआ मैं सबके प्रति मधुर वाणी बोलनेवाला बनूं। मेरे मुख से उच्चरित शब्दों में मूर्खता का आभास न हो। २. (विश्वेदेवा:) = सब देव (मे) = मेरे लिए (रयिम्) = ऐश्वर्य को (नियच्छन्तु) = निश्चय से देनेवाले हों। सब देवों की प्राकृतिक शक्तियों की अनुकूलता मेरे अन्नमयादि सब कोशों को उस-उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण करे। (स्योना:) = सुख देनेवाले (आप:) = शरीरस्थ रेत:कण (पवन:) = अपनी शोधनशक्तियों के द्वारा (मा पुनन्तु) = मुझे पवित्र करनेवाले हों। शरीर में शक्तिकणों के रक्षण से रोगादि का सम्भव नहीं रहता, मन भी राग-द्वेष का शिकार नहीं होता। ये रेत:कण शरीर को नीरोग व मन को निर्मल बनाते हैं।

    भावार्थ - अग्रगति की भावना मुझे वर्चस्वी बनाये, व्यापकता [उदारता] मुझे बुद्धिपूर्वक मधुर शब्द बोलनेवाला करे । सूर्य आदि सब देव मेरे अन्नमयादि कोशों को उस-उस ऐश्वर्य से सम्पन्न करें। शरीर में सुरक्षित रेत:कण मुझे नीरोग व निर्मल बनाएँ।

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