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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 48
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ये स॒त्यासो॑हवि॒रदो॑ हवि॒ष्पा इन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॑ तु॒रेण॑। आग्ने॑ याहिसुवि॒दत्रे॑भिर॒र्वाङ्परैः॒ पूर्वै॒रृषि॑भिर्घर्म॒सद्भिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । स॒त्यास॑: । ह॒वि॒:ऽअद॑: । ह॒वि॒:ऽपा: । इन्द्रे॑ण । दे॒वै: । स॒ऽरथ॑म् । तु॒रेण॑ । आ । अ॒ग्रे॒ । या॒हि॒ । सु॒ऽवि॒दत्रे॑भि: । अ॒र्वाङ् । परै॑: । पूर्वै॑: । ऋषि॑ऽभि: । घ॒र्म॒सत्ऽभि॑: ॥३.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
ये सत्यासोहविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं तुरेण। आग्ने याहिसुविदत्रेभिरर्वाङ्परैः पूर्वैरृषिभिर्घर्मसद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठये । सत्यास: । हवि:ऽअद: । हवि:ऽपा: । इन्द्रेण । देवै: । सऽरथम् । तुरेण । आ । अग्रे । याहि । सुऽविदत्रेभि: । अर्वाङ् । परै: । पूर्वै: । ऋषिऽभि: । घर्मसत्ऽभि: ॥३.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 48
विषय - 'सत्यवादी-सुविदत्र' पितरों के सम्पर्क में
पदार्थ -
१. (ये) = जो (सत्यास:) = सदा सत्य बोलनेवाले हैं। (हविरदः) = हवि को ही खानेवाले हैं और (हविष्याः) = हवि का ही पान करनेवाले हैं, अर्थात् जिनका खानपान हविरूप है-जो यज्ञशेष को ही खानेवाले हैं। (तुरेण:) = शत्रुओं का संहार करनेवाले इन्द्रेण सर्वशक्तिमान् प्रभु के साथ तथा (देवैः) = दिव्यगुणों के साथ (सरथम) = समान रथ में गति करते हैं। यह शरीर ही रथ है। इसे वे प्रभु के दिव्यगुणों का अधिष्ठान बनाते हैं। २. प्रभु कहते हैं कि हे अग्ने प्रगतिशील जीव! तू इन (सुविदत्रेभिः) = उत्तम ज्ञान के द्वारा त्राण करनेवाले, (परैः) = उत्कृष्ट जीवनवाले, (पूर्वैः) = अपना पूरण करनेवाले-न्यूनताओं को दूर करनेवाले, (ऋषिभिः) = [ऋष to kill] वासनाओं को विनष्ट करनेवाले (घर्मसद्भि) = यज्ञों में आसीन होनेवाले पितरों के सम्पर्क में रहता हुआ (अर्वाड़ आयाहि) = अपने हृदयदेश में हमारी और आनेवाला हो।
भावार्थ - हम सत्यवादी, यज्ञशेष का सेवन करनेवाले, प्रभु के साथ विचरनेवाले, ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले, उत्कृष्ट: न्यूनताशून्य जीवनवाले, वासनाओं का संहार करनेवाले, यज्ञशील पितरों के सम्पर्क में अपने जीवनों को भी इसी प्रकार का बनाते हुए प्रभु की ओर चलनेवाले बनें।
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