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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 22
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
सु॒कर्मा॑णःसु॒रुचो॑ देव॒यन्तो॒ अयो॒ न दे॒वा जनि॑मा॒ धम॑न्तः। शु॒चन्तो॑ अ॒ग्निंवा॑वृ॒धन्त॒ इन्द्र॑मु॒र्वीं गव्यां॑ परि॒षदं॑ नो अक्रन् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽकर्मा॑ण: । सु॒ऽरुच॑: । दे॒व॒ऽयन्त॑: । अय॑: । न । दे॒वा: । जनि॑म । धम॑न्त: । शु॒चन्त॑: । अ॒ग्निम् । व॒वृ॒धन्त॑: । इन्द्र॑म् । उ॒र्वीम् । गव्या॑म् । प॒रि॒ऽसद॑म् । न॒:। अ॒क्र॒न् ॥३.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकर्माणःसुरुचो देवयन्तो अयो न देवा जनिमा धमन्तः। शुचन्तो अग्निंवावृधन्त इन्द्रमुर्वीं गव्यां परिषदं नो अक्रन् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽकर्माण: । सुऽरुच: । देवऽयन्त: । अय: । न । देवा: । जनिम । धमन्त: । शुचन्त: । अग्निम् । ववृधन्त: । इन्द्रम् । उर्वीम् । गव्याम् । परिऽसदम् । न:। अक्रन् ॥३.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 22
विषय - शचन्तः, अग्निम, वावृधन्तः इन्द्रम
पदार्थ -
१. (सुकर्माण:) = उत्तम यज्ञरूप कमों को करनेवाले, (सुरुचः) = उत्तम ज्ञानदीप्तिवाले, (देवयन्तः) = प्रभु की प्राप्ति की कामनावाले, (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (अयः न) = जैसे एक अयस्कार [लोहार] अग्नि में तपाकर धातु को शुद्ध कर लेता है, इसीप्रकार तपस्या की अग्नि में जनिमा धमन्त: अपने जन्मों को शुद्ध कर लेते हैं। २. ये पितर (अग्निं शचन्त:) = यज्ञाग्नियों को समिधाओं से दीप्त करते हुए, (इन्द्रं वावृधन्त:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को स्तुतियों के द्वारा बढ़ाते हुए-अपने अन्दर प्रभु के अधिकाधिक प्रकाश को देखते हुए, (न:) = हमारे लिए (उर्वीं गव्याम्) = विशाल ज्ञानवाणी समूह को (परिषदं अक्रन्) = [परितः सीदन्तीम्] चारों ओर आसीन करते हैं। हम चारों ओर ज्ञान की वाणियों से ही घिरे होते हैं-ये ज्ञानवाणियौं हमारा कवच बनती हैं।
भावार्थ - पितर 'सुकर्मा, सुरुच व देवयन्' हैं। ये अपने जीवन को तप की अग्नि में परिशुद्ध करते हैं। यज्ञशील व प्रभु के स्तोता होते हुए हमें ज्ञानवाणियों का कवच प्राप्त कराते हैं।
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