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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उदी॑र्ष्वनार्य॒भि जी॑वलो॒कं ग॒तासु॑मे॒तमुप॑ शेष॒ एहि॑। ह॑स्तग्रा॒भस्य॑ दधि॒षोस्तवे॒दंपत्यु॑र्जनि॒त्वम॒भि सं ब॑भूथ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ई॒र्ष्व॒ । ना॒रि॒ । अ॒भि । जी॒व॒ऽलो॒कम् । ग॒तऽअ॑सुम् । ए॒तम् । उप॑ । शे॒षे॒ । आ । इ॒हि॒ । ह॒स्त॒ऽग्रा॒भस्य॑ । द॒धि॒षो: । तव॑ । इ॒दम् । पत्यु॑: । ज॒नि॒ऽत्वम् । अ॒भि । सम् । ब॒भू॒थ॒ ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उदीर्ष्वनार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि। हस्तग्राभस्य दधिषोस्तवेदंपत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ईर्ष्व । नारि । अभि । जीवऽलोकम् । गतऽअसुम् । एतम् । उप । शेषे । आ । इहि । हस्तऽग्राभस्य । दधिषो: । तव । इदम् । पत्यु: । जनिऽत्वम् । अभि । सम् । बभूथ ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
विषय - स्वस्थ रहते हुए सन्तान का ध्यान करना
पदार्थ -
१. हे (नारि) = गृह की उन्नति की कारणभूत पनि! तू (उदीर्ष्व) = ऊपर उठ और घर के कार्यों में लग [ईर गतौ] (जीवलोकम् अभि) = इस जीवित संसार का तू ध्यान कर । जो गये वे तो गये ही। अब तू (गतासुम्) = गतप्राण (एतम्) = इस पति के (उपशेषे) = समीप पड़ी है। इसप्रकार शोक में पड़े रहने का क्या लाभ? (एहि) = आ, घर की ओर चल। घर की सब क्रियाओं को ठीक से करनेवाली हो। २. (हस्तनाभस्य) = तेरे हाथ का ग्रहण करनेवाले (दधिषो:) = गर्भ में सन्तान को स्थापित करनेवाले (तव पत्यु:) = तेरे पति की (इदं जनित्वम्) = इस उत्पादित सन्तान को (अभि) = लक्ष्य करके (संबभूथ) = सम्यक्तया होनेवाली हो, अर्थात् तू अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यानकर, जिससे सन्तान के पालन-पोषण में किसी प्रकार से तू असमर्थ न हो जाए।
भावार्थ - यदि अकस्मात् पति मृत्यु का शिकार हो जाए तो पत्नी शोक न करती रहकर, पति के सन्तानों का ध्यान करती हुई अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए यत्नशील हो।
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