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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒मम॑ग्ने चम॒संमा वि जि॒ह्वरः॑ प्रि॒यो दे॒वाना॑मु॒त सो॒म्याना॑म्। अ॒यं यश्च॑म॒सोदे॑व॒पान॒स्तस्मि॑न्दे॒वा अ॒मृता॑ मादयन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । च॒म॒सम् । मा । वि । जि॒ह्व॒र॒: । प्रि॒य: । दे॒वाना॑म् । उ॒त । सो॒म्याना॑म् । अ॒यम् । य: । च॒म॒स: । दे॒व॒ऽपान॑: । तस्मि॑न् । दे॒वा: । अ॒मृता॑: । मा॒द॒य॒न्ता॒म् ॥३.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममग्ने चमसंमा वि जिह्वरः प्रियो देवानामुत सोम्यानाम्। अयं यश्चमसोदेवपानस्तस्मिन्देवा अमृता मादयन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । अग्ने । चमसम् । मा । वि । जिह्वर: । प्रिय: । देवानाम् । उत । सोम्यानाम् । अयम् । य: । चमस: । देवऽपान: । तस्मिन् । देवा: । अमृता: । मादयन्ताम् ॥३.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 53

    पदार्थ -
    १. प्रगतिशील जीव को 'अग्नि' कहते हैं। यह प्रगतिशील जीव अपने इस शरीर को (चमस्) = सोमपात्र बनाता है। इस शरीररूप चमस् में वह सोम [वीर्य] को सुरक्षित रखता है। जैसे घृतपूर्ण चम्मच कुछ हेड़ा हो जाए तो घृत के गिरने की आशंका हो जाती है, उसीप्रकार इस शरीररूप चमस् के भी टेढ़ा होने से इसमें कुटिलता के आने से-सोम का नाश हो जाता है, अत: मन्त्र में कहते हैं कि हे अग्ने-प्रगतिशील जीव। (इमं चमसम्) = इस सोम के पात्रभूत शरीर को (मा विजिहर:) = तु कुटिल मत होने दे। यदि यहाँ कुटिल वृत्तियाँ पनप उठी तो सोम का रक्षण सम्भव न रहेगा। सोम के रक्षण से ही तो यह शरीर (देवानाम) = देवों का होता है, उत और यह शरीर (सोम्यानाम्) = सौम्य-शान्त पुरुषों का होता है, अर्थात् सोम के सुरक्षित होने पर हम देववृत्तिवाले व सौम्य स्वभाव के होते हैं। यह (चमस्) = देवों व सौम्य पुरुषों का (प्रियः) = अत्यन्त प्रिय होता है, कान्तिसम्पन्न होता है। २. (अयम्) = यह जो (चमस:) = सोमपात्र बना हुआ शरीर (देवपान:) = देवों के सोमपान का स्थान बनता है। [पिबन्ति अस्मिन् इति] (तस्मिन्) = उस शरीर में (देवा:) = देव लोग (अमृता:) = रोगरूप मृत्युओं से आक्रान्त न होते हुए तथा विषय वासनाओं के पीछे न मरते हुए (मादयन्ताम्) = हर्ष का अनुभव करें। इस सोमपात्रभूत शरीर में देव नीरोगता व निर्मलता के आनन्द का अनुभव करते हैं।

    भावार्थ - कुटिलवृत्तियों से ऊपर उठकर हम शरीर में सोमरक्षण के द्वारा इस शरीर को देवों व सौम्य पुरुषों का प्रिय शरीर बनाएँ और नीरोग व निर्मलवृत्ति के बनकर आनन्द का अनुभव करें।

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