Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 72
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ये ते॒ पूर्वे॒परा॑गता॒ अप॑रे पि॒तर॑श्च॒ ये। तेभ्यो॑ घृ॒तस्य॑ कु॒ल्यैतु श॒तधा॑राव्युन्द॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । पूर्वे॑ । परा॑ऽगता: । अप॑रे । पि॒तर॑: । च॒ । ये । तेभ्य॑: । घृ॒तस्य॑ । कु॒ल्या॑ । ए॒तु॒ । श॒तऽधा॑रा । वि॒ऽउ॒द॒न्ती ॥३.७२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते पूर्वेपरागता अपरे पितरश्च ये। तेभ्यो घृतस्य कुल्यैतु शतधाराव्युन्दती ॥
स्वर रहित पद पाठये । ते । पूर्वे । पराऽगता: । अपरे । पितर: । च । ये । तेभ्य: । घृतस्य । कुल्या । एतु । शतऽधारा । विऽउदन्ती ॥३.७२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 72
विषय - घृतस्य कुल्या
पदार्थ -
१. (ये) = जो (ते) = वे (पूर्वे) = पहले पितर, अर्थात् प्रपितामह और पितामह, (ये च) = और जो (अपरे पितर:) = अपर पितर, अर्थात् तेरे पिता (परागता:) = गृहस्थ से ऊपर उठकर दूर वन में चले गये हैं, (तेभ्य:) = उनसे (घृतस्य) = ज्ञानजल की प्रवाहिणी कुल्या-नदी एतु-हमें पाप्त हों। यह घृतकुल्या शतधारा-सैकड़ों प्रकार से हमारा धारण करनेवाली हो और व्युन्दती-हमारे हदयों को भक्तिरस से आई करती हुई हो।
भावार्थ - हमें 'प्रपितामह, पितामह व पिता' रूप पितरों से वह ज्ञान प्रास हो जोकि सैकड़ों प्रकार से हमारा धारण करे और हमें भक्तिरस से आप्लवित करनेवाला हो।
इस भाष्य को एडिट करें