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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 55
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यत्ते॑ कृ॒ष्णःश॑कु॒न आ॑तु॒तोद॑ पिपी॒लः स॒र्प उ॒त वा॒ श्वाप॑दः। अ॒ग्निष्टद्वि॒श्वाद॑ग॒दंकृ॑णोतु॒ सोम॑श्च॒ यो ब्रा॑ह्म॒णाँ आ॑वि॒वेश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । कृ॒ष्ण: । श॒कु॒न: । आ॒ऽतु॒तोद॑ । पि॒पी॒ल: । स॒र्प: । उ॒त । वा॒ । श्वाप॑द: । अ॒ग्नि: । तत् । वि॒श्व॒ऽअत् । अ॒ग॒दम् । कृ॒णो॒तु॒ । सोम॑: । च॒ । य । ब्रा॒ह्म॒णान् । आ॒ऽवि॒वेश॑ ॥३.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते कृष्णःशकुन आतुतोद पिपीलः सर्प उत वा श्वापदः। अग्निष्टद्विश्वादगदंकृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणाँ आविवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । कृष्ण: । शकुन: । आऽतुतोद । पिपील: । सर्प: । उत । वा । श्वापद: । अग्नि: । तत् । विश्वऽअत् । अगदम् । कृणोतु । सोम: । च । य । ब्राह्मणान् । आऽविवेश ॥३.५५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 55
विषय - अग्नि व सोम द्वारा विष-प्रतीकार
पदार्थ -
१. यहाँ-नगरों में रहते हुए हम अनुभव करते हैं कि कुत्ते के काटने से कितने ही व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार वानप्रस्थ में, जहाँ कि मकानों का स्थान कुटिया ले-लेती है और पलंगों का स्थान भूमि, वहाँ कृमि-कीट के दंश की अधिक सम्भावना हो सकती है, अतः कहते हैं कि (यत्) = जब (कृष्णाः शकुन:) = यह काला पक्षी-कौआ अथवा द्रोणकान्द [काकोल] (ते) = तुझे (आतुतोद) = पीड़ित करता है, (पिपील:) = कीड़ा-मकौड़ा तुझे काट खाता है, (सर्प:) = साँप डस लेता है, उत वा अथवा श्वापदः-कोई हिंन पशु तुझे घायल कर देता है, (तत्) = तो (विश्वात् अग्नि:) = सब विष आदि को भस्म कर देनेवाली अग्नि (अगदं कृणोतु) = तुझे नीरोग करनेवाली हो। सादिक के दंश के होने पर उस विषाक्त स्थल को अग्नि के प्रयोग से जलाकर विषप्रभाव को समाप्त किया जाता है। विद्युतचिकित्सा में यही प्रक्रिया काम करती है। २. यह अग्निप्रयोग तभी सफल होता है, यदि शरीर में रोग से संघर्ष करनेवाली वर्चःशक्ति [Vitality] ठीक रूप में हो। इस वर्चशक्ति के न होने पर बाह्य उपचार असफल ही रहते हैं, इसलिए मन्त्र में कहते हैं कि (सोमः च) = यह सोम-वीर्यशक्ति भी तुझे नीरोग करें। वह सोम (यः) = जो (ब्राह्मणान् आविवेश) = ज्ञानी पुरुषों में प्रवेश करता है। ज्ञानी लोग सोम के महत्त्व को समझकर उसे सुरक्षित रखने के लिए पूर्ण प्रयत्न करते हैं। सोम ही वस्तुत: रोगों व विकारों को दूर करता है-औषधोपचार तो उसके सहायकमात्र होते हैं।
भावार्थ - पक्षी, कृमि, कीट, सर्प व हिंस्र पशुओं से उत्पन्न किये गये विकारों को अग्नि प्रयोग से तथा शरीर में सोम के रक्षण से हम दूर करनेवाले हों। सोम के शरीर में सुरक्षित होने पर ही औषधोपचार उपयोगी होता है।
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