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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 58
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - विराट् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    सं ग॑च्छस्वपि॒तृभिः॒ सं य॒मेने॑ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्योमन्। हि॒त्वाव॒द्यंपुन॒रस्त॒मेहि॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ग॒च्छ॒स्व॒ । पि॒तृऽभि॑: । सम् । य॒मेन॑ । इ॒ष्टापू॒र्तेन॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । हि॒त्वा । अ॒व॒द्यम् । पुन॑: । अस्त॑म् । आ । इ॒हि॒ । सम् । ग॒च्छ॒ता॒म् । त॒न्वा॑ । सु॒ऽवर्चा॑: ॥५.५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं गच्छस्वपितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्। हित्वावद्यंपुनरस्तमेहि सं गच्छतां तन्वा सुवर्चाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । गच्छस्व । पितृऽभि: । सम् । यमेन । इष्टापूर्तेन । परमे । विऽओमन् । हित्वा । अवद्यम् । पुन: । अस्तम् । आ । इहि । सम् । गच्छताम् । तन्वा । सुऽवर्चा: ॥५.५८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 58

    पदार्थ -
    १. (पितृभिः संगच्छस्व) = पालनात्मक कर्मों में लगे हुए पुरुषों के साथ तू संगति करनेवाला हो। इनके संग में तू भी निर्माणात्मक कार्यों की प्रवृत्तिवाला बन । (यमेन सं)[गच्छस्व] = संयमी पुरुषों के साथ तेरा मेल हो। उनके सम्पर्क में तू भी संयमी बन। (परमे व्योमन्) = इस उत्कृष्ट हृदयान्तरिक्ष में तू (इष्टापूर्तेन) = इष्ट व आपूर्त की भावना से युक्त हो। तेरी प्रवृत्ति यज्ञात्मक कर्मों की हो तथा तू वापी, कूप, तड़ाग आदि लोकहित की वस्तुओं के निर्माण की वृत्तिवाला हो। २. (अवयं हित्वा) = सब अशुभ कर्मों को छोड़कर (पुन: अस्तम् एहि) = फिर अपने वास्तविक गृह ब्रह्मलोक-की ओर आनेवाला बन। यहाँ-संसार में (सुवर्चा:) = उत्तम वर्चस्-प्राणशक्तिवाला होता हुआ (तन्वा संगच्छताम्) = विस्तृत शक्तिओंवाले शरीर से संगत हो। इस शरीर को स्वस्थ रखता हुआ तू मोक्षमार्ग की ओर बढ़।

    भावार्थ - हमारा सम्पर्क संयमी व निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों के साथ हो। हमारे हृदयों में यज्ञादि उत्तम कर्म करने का संकल्प हो। अशुभ से दूर होकर हम ब्रह्मलोक की ओर चलें। यात्रा की पूर्ति के लिए स्वस्थ शरीरवाले बनें।

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