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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
कण्वः॑क॒क्षीवा॑न्पुरुमी॒ढो अ॒गस्त्यः॑ श्या॒वाश्वः॒ सोभ॑र्यर्च॒नानाः॑।वि॒श्वामि॑त्रो॒ऽयं ज॒मद॑ग्नि॒रत्रि॒रव॑न्तु नः क॒श्यपो॑ वा॒मदे॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठकण्व॑: । क॒क्षीवा॑न् । पु॒रु॒ऽमी॒ढ: । अ॒गस्त्य॑: । श्या॒वऽअ॑श्व: । सोभ॑री । अ॒र्च॒नाना॑:। वि॒श्वामि॑त्र: । अ॒यम् । ज॒मत्ऽअ॑ग्नि: । अ॑त्रि: । अव॑न्तु । न॒: । क॒श्यप॑:। वा॒मऽदे॑व: ॥३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वःकक्षीवान्पुरुमीढो अगस्त्यः श्यावाश्वः सोभर्यर्चनानाः।विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरत्रिरवन्तु नः कश्यपो वामदेवः ॥
स्वर रहित पद पाठकण्व: । कक्षीवान् । पुरुऽमीढ: । अगस्त्य: । श्यावऽअश्व: । सोभरी । अर्चनाना:। विश्वामित्र: । अयम् । जमत्ऽअग्नि: । अत्रि: । अवन्तु । न: । कश्यप:। वामऽदेव: ॥३.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 15
विषय - द्वादश पितरः
पदार्थ -
१. 'कण्व' आदि द्वादश पितर (न:) = हमें (अवन्तु) = ज्ञान द्वारा व अपने जीवन द्वारा प्रेरणा देते हुए प्रौणित करें। (कण्वः) = कण-कण करके ज्ञान का संचय करनेवाला अथवा ज्ञानोपदेश करनेवाला। (कक्षीवान्) = [कक्ष्या अश्वरज्जुः] प्रशस्त कक्ष्यावाला-इन्द्रियों को जिसने कसा हुआ है। (पुरुमीढ:) = अपने में खूब ही शक्ति का सेचन करनेवाला, (अगस्त्य:) = [अगस्त्य पापपर्वत का संघात] [सम्यक् विनाश] करनेवाला, (श्यावाश्व:) = गतिशील इन्द्रियोंवाला-सदा कर्त्तव्यकर्मों में तत्पर सोभरि-उत्तमता से वरण करनेवाला, (अर्चनाना:) = पूजा की वृत्तिवाला, अथवा [अर्चनीयं अनः शरीरशकटं यस्य] उत्तम आदरणीय शरीर शकटवाला, (विश्वामित्र:) = सबके प्रति स्नेह की भावनावाला, अर्य जमदग्निः यह [जमतः, ज्वलन्त: अग्नयो यस्य] सदा प्रज्वलित यज्ञाग्निवाला, कश्यपः [पश्यक:]-ज्ञानी और (वामदेव:) = सुन्दर दिव्य गुणोंवाला।
भावार्थ - 'कण्व' आदि पितरों के सम्पर्क में हम भी उनके जीवन से प्रेरणा लेते हुए वैसे ही बनें।
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