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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    विश्वा॑मित्र॒जम॑दग्ने॒ वसि॑ष्ठ॒ भर॑द्वाज॒ गोत॑म॒ वाम॑देव। श॒र्दिर्नो॒अत्रि॑रग्रभी॒न्नमो॑भिः॒ सुसं॑शासः॒ पित॑रो मृ॒डता॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑मित्र । जम॑त्ऽअग्ने । वसि॑ष्ठ । भर॑त्ऽवाज । गोत॑म । वाम॑ऽदेव । श॒र्दि॑: । न॒: । अत्रि॑: । अ॒ग्र॒भी॒त् । नम॑:ऽभि: । सुऽसं॑शास: । पित॑र: । मृ॒डत॑ । न॒: ॥३.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वामित्रजमदग्ने वसिष्ठ भरद्वाज गोतम वामदेव। शर्दिर्नोअत्रिरग्रभीन्नमोभिः सुसंशासः पितरो मृडता नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वामित्र । जमत्ऽअग्ने । वसिष्ठ । भरत्ऽवाज । गोतम । वामऽदेव । शर्दि: । न: । अत्रि: । अग्रभीत् । नम:ऽभि: । सुऽसंशास: । पितर: । मृडत । न: ॥३.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    १. हे (विश्वामित्र) = सबके प्रति स्नेहवाले, (जमदग्ने) = प्रज्वलित यज्ञाग्निवाले, (वसिष्ठ) = उत्तम वसुओंवाले, (भरद्वाज) = अपने में शक्ति भरनेवाले, (गोतम) = प्रशस्त इन्द्रियों व ज्ञान की वाणियोंवाले, (वामदेव) = सुन्दर दिव्यगुणोंवाले पितरो! आप (नः) = हमें (अग्रभीत्) = ग्रहण करो। हम आपके प्रिय हों-आपके चरणों में उपस्थित हों। आप हमारे गृहों पर आने का अनुग्रह करें। २. (शर्दिः) = [छर्दिः, घृ दीसौ] ज्ञानदीप्त व [छर्दिः-गृहम्] सबको शरण देनेवाला, (अत्रि:) = काम, क्रोध, लोभ से शून्य [अ-त्रि] (न:) = हमें (नमोभि:) = नम्रता की भावनाओं के द्वारा ग्रहण करें। हम नम्र होकर इनके समीप पहुँचें, प्रथम इनकी नम्रता से प्रभावित होकर नम्न बनने का संकल्प करें। (सुसंशास:) = उत्तम रीति से सम्यक् शासन [अनुशासन-उपदेश] करनेवाले (पितर:) = पितरो! आप (नः मृडत) = हमें सुखी करें। आपका उपदेश हमें उत्तम प्रेरणा देनेवाला हो।

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