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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 54
सूक्त - इन्दु
देवता - पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अथ॑र्वापू॒र्णं च॑म॒सं यमि॑न्द्रा॒याबि॑भर्वा॒जिनी॑वते। तस्मि॑न्कृणोति सुकृ॒तस्य॑भ॒क्षं तस्मि॒न्निन्दुः॑ पवते विश्व॒दानीम् ॥
स्वर सहित पद पाठअथ॑र्वा । पू॒र्णम् । च॒म॒सम् । यम् । इन्द्रा॑य । अबि॑भ: । वा॒जिनी॑ऽवते । तस्मि॑न् । कृ॒णो॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । भ॒क्षम् । तस्मि॑न् इन्दु॑: । प॒व॒ते॒ । वि॒श्व॒ऽदानी॑म् ॥३.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
अथर्वापूर्णं चमसं यमिन्द्रायाबिभर्वाजिनीवते। तस्मिन्कृणोति सुकृतस्यभक्षं तस्मिन्निन्दुः पवते विश्वदानीम् ॥
स्वर रहित पद पाठअथर्वा । पूर्णम् । चमसम् । यम् । इन्द्राय । अबिभ: । वाजिनीऽवते । तस्मिन् । कृणोति । सुऽकृतस्य । भक्षम् । तस्मिन् इन्दु: । पवते । विश्वऽदानीम् ॥३.५४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 54
विषय - शरीर का मुख्य लक्ष्य 'प्रभु-प्राप्ति'
पदार्थ -
१. अथर्वा-[अर्वाङ] आत्मनिरीक्षण करनेवाला [अ-थर्व] न डांवाडोल वृत्तिवाला पुरुष यम्-जिस पूर्ण चमसम्-सुरक्षित सोम से पूर्ण चमस् [शरीर-पात्र] को वाजिनीवते-[वाजिनी food] सब भोजनों को देनेवाले इन्द्राय-परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए अबिभ:-धारण करता है, तस्मिन्-उस इन्द्र की प्राप्ति के लिए धारण किये गये शरीर में सुकृतस्य भक्षं कृणोति-पुण्य का भोजन करता है। इस शरीर को प्रभु--प्रासि का साधन समझता हुआ वह पाप में प्रवृत्त नहीं होता। वह प्रभु को ही सब शक्तियों का स्रोत जानकर प्रभु की ओर ही झुकता है। यह प्रभु-प्रवणता उसे पुण्य-प्रवृत्त बनाती है। २. तस्मिन्-उस पुण्य का भोजन किये जानेवाले शरीर में इन्द्रः-वह सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर्यशाली प्रभु विश्वदानीम्-सदा पवते-पवित्रता करनेवाले होते हैं। यह अथर्वा प्रभु को 'वाजिनीवान्' प्रशस्त अन्नोंवाले के रूप में जानता है। प्रभु से दिये गये 'व्रीहिमत्तं यवमत्तं माषमत्तमथो तिलम्' व्रीहि, यव, माष, तिल आदि भोजनों को ही करनेवाला बनता है। इन सात्त्विक भोजनों का सेवन उसे सात्त्विक वृत्तिवाला बनाता है।
भावार्थ - आत्मनिरीक्षण करनेवाला व स्थिर वृत्तिवाला मनुष्य शरीर को प्रभु-प्राप्ति का साधन समझता है। इसी उद्देश्य से वह शरीर में सोम का रक्षण करता है। इस शरीर में वह पवित्र भोजनों को करता हुआ पवित्रवृत्तिवाला बनता है।
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