अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अव॑ सृज॒पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धावा॑न्। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ यातु॒शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । सृ॒ज॒ । पुन॑: । अ॒ग्ने॒ । पि॒तृऽभ्य॑: । य: । ते॒ । आऽहु॑त: । चर॑ति । स्व॒धाऽवा॑न् । आयु॑: । वसा॑न: । उप॑ । या॒तु॒ । शेष॑: । सम् । ग॒च्छ॒ता॒म् । त॒न्वा᳡ । सु॒ऽवर्चा॑: ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अव सृजपुनरग्ने पितृभ्यो यस्त आहुतश्चरति स्वधावान्। आयुर्वसान उप यातुशेषः सं गच्छतां तन्वा सुवर्चाः ॥
स्वर रहित पद पाठअव । सृज । पुन: । अग्ने । पितृऽभ्य: । य: । ते । आऽहुत: । चरति । स्वधाऽवान् । आयु: । वसान: । उप । यातु । शेष: । सम् । गच्छताम् । तन्वा । सुऽवर्चा: ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
विषय - पुनः पितरों के प्रति अर्पण व प्रवजित होने की तैयारी
पदार्थ -
१. माता-पिता अपने सन्तानों को पितरों [आचार्यों के प्रति सौंपते हैं। आचार्य उन्हें ज्ञानपरिपक्व करके घर वापस भेजते हैं। यहाँ घरों में देवों के साथ अनुकूलता रखते हुए यह स्वस्थ शरीर बनता है, उपासना द्वारा हृदय में प्रभु-दर्शन करता है। अब गृहस्थ को सुन्दरता से समास करके हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! तू (पुन:) = फिर, वनस्थ होता हुआ, (पितृभ्यः अवसृज) = वनस्थ पितरों के लिए अपने को देनेवाला बन। इनके चरणों में ही तु अपने को संन्यास के लिए तैयार कर पाएगा। उस पितर के लिए तू अपने को अर्पित कर (यः) = जो (ते) = तेरे द्वारा (आहुत:) = आहुत हुआ था, जिसके प्रति तूने अपना अर्पण किया है, वह (स्वधावान् चरति) = आत्मतत्त्व को धारण करनेवाला होकर सब क्रियाएँ करता है। तुझे भी वह आत्मतत्व को धारण के मार्ग पर ले-चलेगा। २. अब (स्वधावान्) = बनकर तू प्रतजित होता है, और (आयुः वासना) = उत्कृष्ट सशक्त व दीप्त-जीवन को धारण करता हुआ (शेषः उप यातु) = अवशिष्ट भोजन को ही [शेषस्-अवशिष्ट] तू प्राप्त करनेवाला हो। सब खा चुकें तब बचे हुए को ही तूने भिक्षा में प्राप्त करना [विधूमे सत्रमुसले]। (सवर्चा:) = संयम द्वारा उत्तम वर्चस् शक्तिवाला तू (तन्वा संगच्छताम्) = शक्तियों के विस्तार से संगत हो। परिपक्व फल की तरह तू अधिक और अधिक दौस होता चल।
भावार्थ - गृहस्थ के बाद वनस्थ होने के समय हम उन पितरों के सम्पर्क में आएँ जो हमें आत्मदर्शन के मार्ग पर ले-चलें। अब अन्त में संन्यस्त होकर हम गृहस्थों के भुक्तावशिष्ट भोजन को ही भिक्षा में प्राप्त करके, किसी पर बोझ न बनते हुए सुवर्चस बनें, शक्तियों के विस्तारवाले हों।
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