अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
प्रा॒णो अ॑पा॒नोव्या॒न आयु॒श्चक्षु॑र्दृ॒शये॒ सूर्या॑य। अप॑रिपरेण प॒था य॒मरा॑ज्ञः पि॒तॄन्ग॑च्छ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒ण: । अ॒पा॒न: । वि॒ऽआ॒न: । आयु॑: । चक्षु॑: । दृ॒शये॑ । सूर्या॑य । अप॑रिऽपरेण । प॒था । य॒मऽरा॑ज्ञ: । पि॒तॄन् । ग॒च्छ॒ ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणो अपानोव्यान आयुश्चक्षुर्दृशये सूर्याय। अपरिपरेण पथा यमराज्ञः पितॄन्गच्छ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण: । अपान: । विऽआन: । आयु: । चक्षु: । दृशये । सूर्याय । अपरिऽपरेण । पथा । यमऽराज्ञ: । पितॄन् । गच्छ ॥२.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
विषय - अपरिपर पथ [अकुटिल मार्ग]
पदार्थ -
१. हम इस बात को कभी न भूलें कि (प्राण:) = प्राण, (अपान:) = अपान, (व्यान:) = व्यान, (आयु:) = जीवन तथा (चक्षुः) = आँख-ये सब (सूर्याय दृशये) = उस सूर्यस्थ ज्योति ब्रह्मा के दर्शन के लिए दिये गये हैं। वस्तुतः जीवन का लक्ष्य ब्रह्मप्राप्ति ही है, २. अत: हे साधक! तू (यमराज्ञः) = उस सर्वनियन्ता शासक [देदीप्यमान] प्रभु के-प्रभु से उपदिष्ट (अपरिपरेण पथा) = अकुटिल मार्ग से (पितृृन् गच्छ) = पितरों को प्राप्त होनेवाला हो। अकुटिल मार्ग से चलता हुआ तू भी पितरों में गिना जानेवाला हो। 'आर्जवं ब्रह्मणः पदम्' सरलता ही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थ - हम जीवन का लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति को समझें। सरलमार्ग से चलते हुए पितरों में गिने-जाते हुए, प्रभु को प्राप्त करें।
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