अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अपे॒मं जी॒वाअ॑रुधन्गृ॒हेभ्य॒स्तं निर्व॑हत॒ परि॒ ग्रामा॑दि॒तः। मृ॒त्युर्य॒मस्या॑सीद्दू॒तःप्रचे॑ता॒ असू॑न्पि॒तृभ्यो॑ गम॒यां च॑कार ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒मम् । जी॒वा: । अ॒रु॒ध॒न् । गृ॒हेभ्य॑: । तम् । नि: । व॒ह॒त॒ । परि॑ । ग्रामा॑त् । इ॒त: । मृ॒त्यु: । य॒मस्य॑ । आ॒सी॒त् । दू॒त: । प्रऽचे॑ता: । असू॑न् । पि॒तृऽभ्य॑: । ग॒म॒याम् । च॒का॒र॒ ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेमं जीवाअरुधन्गृहेभ्यस्तं निर्वहत परि ग्रामादितः। मृत्युर्यमस्यासीद्दूतःप्रचेता असून्पितृभ्यो गमयां चकार ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इमम् । जीवा: । अरुधन् । गृहेभ्य: । तम् । नि: । वहत । परि । ग्रामात् । इत: । मृत्यु: । यमस्य । आसीत् । दूत: । प्रऽचेता: । असून् । पितृऽभ्य: । गमयाम् । चकार ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
विषय - आचार्यकल में प्रवेश तथा वहाँ से समावर्त्तन
पदार्थ -
१.(जीवा:) = जीवन धारण करनेवाले सब गृहस्थ (इमम्) = इस अपने सन्तान को (गृहेभ्यः) = घरों से (अप अरुधन्) = दूर ही निरुद्ध करते हैं। घरों से दूर आचार्यकुलों में अपने इस सन्तान को रखते हैं। (तम्) = उस सन्तान को (इतः ग्रामात्) = यहाँ ग्राम से (परि निर्वहत) = दुर बाहर आचार्यकुल में प्राप्त कराओ। माता-पिता कहें-अब तुझे 'मृत्यवे त्वा ददामीति' मृत्यु [आचार्य] के लिए सौंपते हैं। मोहवश सन्तानों को घरों में ही रक्खे रखना ठीक नहीं। २. (मृत्युः) [आचार्यों मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पयः०] = यह आचार्य (यमस्य) = उस सर्वनियन्ता प्रभु का (दूतः आसीत्) = दूत है-सन्देशहर है। यह विद्यार्थी के लिए ज्ञान का सन्देश सुनाता है। (प्रचेता:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाला है। ज्ञान ही तो इस आचार्य की वास्तविक सम्पत्ति है। यह विद्यार्थियों को खूब शक्तिसम्पन्न व ज्ञानी बनाकर इन (असून्) = [असु-प्राणशक्ति+प्रज्ञा] प्राणशक्ति व प्रज्ञा के पुञ्जभूत स्नातकों को (पितृभ्यः) = माता-पिता के लिए (गमयांचकार) = भेजता है। यही इनका समावर्तन होता है।
भावार्थ - गृहस्थ सन्तानों को आचार्यकुलों में भेज दें। आचार्य उन्हें संयमी विद्वान् बनाकर पुनः पितरों के समीप पास करानेवाले हों।
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