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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ये चि॒त्पूर्व॑ऋ॒तसा॑ता ऋ॒तजा॑ता ऋता॒वृधः॑। ऋषी॒न्तप॑स्वतो यम तपो॒जाँ अपि॑ गच्छतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । चि॒त् । पूर्वे॑ । ऋ॒तऽसा॑ता: । ऋ॒तऽजा॑ता: । ऋ॒त॒ऽवृध॑: । ऋषी॑न् । तप॑स्वत: । य॒म॒ । त॒प॒:ऽजान् । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये चित्पूर्वऋतसाता ऋतजाता ऋतावृधः। ऋषीन्तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । चित् । पूर्वे । ऋतऽसाता: । ऋतऽजाता: । ऋतऽवृध: । ऋषीन् । तपस्वत: । यम । तप:ऽजान् । अपि । गच्छतात् ॥२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    १.(ये) = जो (चित्) = निश्चय से (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले हैं, (ऋत-साता:) = ऋत का सम्भजन करनेवाले-बड़े व्यवस्थित जीवनवाले [ऋत् right], (ऋतजाता:) = [ऋत्-यज्ञ] यज्ञों में ही प्रादुर्भूत हुए-हुए, अर्थात् सदा यज्ञशील हैं, (ऋातावृधः) = सत्य के द्वारा [ऋत्-सत्य] वृद्धि को प्राप्त करनेवाले हैं, उन (ऋषीन) = तत्वष्टा, (तपस्वत:) = तपस्वी (तपोजान्) = तप में ही प्रादुर्भूत हुए हुए, अर्थात् सदा तपस्वी पितरों को ही, हे (यम) = सर्वनियन्ता प्रभो! यह साधक (अपिगच्छतात्) = प्राप्त होनेवाला हो। २. ऐसे पितरों के सम्पर्क में यह भी 'ऋत व तप' को अपनाता हुआ ऋषि [तत्त्वद्रष्टा] बन पाये।

    भावार्थ - हम उन पितरों के सम्पर्क में आएँ जिनमें 'ऋत, तप व ज्ञान' का निवास है। इनके सम्पर्क में हम भी ऐसे ही बनें।

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