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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ह्वया॑मि ते॒मन॑सा॒ मन॑ इ॒हेमान्गृ॒हाँ उप॑ जुजुषा॒ण एहि॑। सं ग॑च्छस्व पि॒तृभिः॒ सं य॒मेन॑स्यो॒नास्त्वा॒ वाता॒ उप॑ वान्तु श॒ग्माः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह्वया॑मि । ते॒ । मन॑सा । मन॑: । इ॒ह । इ॒मान् । गृ॒हान् । उप॑ । जु॒जु॒षा॒ण: । आ । इ॒हि॒ । सम् । ग॒च्छ॒स्व॒ । पि॒तृऽभि॑: । सम् । य॒मेन॑ । स्यो॒ना: । त्वा॒ । वाता॑: । उप॑ । वा॒न्तु॒ । श॒ग्मा: ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ह्वयामि तेमनसा मन इहेमान्गृहाँ उप जुजुषाण एहि। सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनस्योनास्त्वा वाता उप वान्तु शग्माः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ह्वयामि । ते । मनसा । मन: । इह । इमान् । गृहान् । उप । जुजुषाण: । आ । इहि । सम् । गच्छस्व । पितृऽभि: । सम् । यमेन । स्योना: । त्वा । वाता: । उप । वान्तु । शग्मा: ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    १. हे साधक! (मनसा) = मन से (ते मनः ह्वयामि) = तेरे मन को पुकारता है, अर्थात् घरों में तुम्हारे मन परस्पर मिले हुए हों। एक का मन दूसरे के मन को पुकारनेवाला हो। (इह) = यहाँ (इमान् गहान्) = इन घरों को (जुजुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (उप एहि) = समीपता से प्राप्त हो। जब घरों में सबके मन मिले होते हैं-जब इनमें सौमनस होता है तब मनुष्य घर में आने के लिए उत्सुक रहता है-घर से दूर नहीं होता। २. इन घरों में रहता हुआ तू (पितृभिः संगच्छस्व) = पितरों के साथ सम्पर्कवाला हो-उनकी सेवा करता हुआ सदा उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर । (यमेन) = सर्वनियन्ता प्रभु से (सम्) = संगत हो। प्रभु की उपासना ही तो तुझे शक्ति, उत्साह व पवित्रता प्राप्त कराएगी। इसप्रकार जीवन बिताने पर (त्वा) = तेरे लिए (स्योना:) = सुखकर (शरमा:) = शक्तिप्रद [शक्] (वाता:) = वायु (उपवान्तु) = बहें। तेरे लिए सभी वातावरण सुख व शक्ति को देनेवाला हो।

    भावार्थ - घरों में परस्पर मन मिले हों। इन घरों में प्रीतिपूर्वक निवास करते हुए हम पितरों का आदर करें और प्रभु का उपासन करें-पितृयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ को सम्यक् करनेवाले हों। ऐसा होने पर सारा वातावरण हमारे लिए शान्ति [सुख] व शक्ति को देनेवाला होगा।

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