अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अ॑संबा॒धेपृ॑थि॒व्या उ॒रौ लो॒के नि धी॑यस्व। स्व॒धा याश्च॑कृ॒षे जीव॒न्तास्ते॑ सन्तुमधु॒श्चुतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒म्ऽबा॒धे । पृ॒थि॒व्या: । उ॒रौ । लो॒के । नि । धी॒य॒स्व॒ । स्व॒धा: । या: । च॒कृ॒षे । जीव॑न् । ता: । ते॒ । स॒न्तु॒ । म॒धु॒ऽश्चुत॑: ॥२.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
असंबाधेपृथिव्या उरौ लोके नि धीयस्व। स्वधा याश्चकृषे जीवन्तास्ते सन्तुमधुश्चुतः ॥
स्वर रहित पद पाठअसम्ऽबाधे । पृथिव्या: । उरौ । लोके । नि । धीयस्व । स्वधा: । या: । चकृषे । जीवन् । ता: । ते । सन्तु । मधुऽश्चुत: ॥२.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
विषय - विशाल व सम्बाधाशून्य घरों में पितृयज्ञ का अनुष्ठान
पदार्थ -
१. हे पुरुष! तू (पृथिव्याः) = पृथिवी के (असम्बाधे) = पीड़ा व भय से रहित-सम्बाधाशुन्य (उरौ लोके) = बड़े विशाल लोक में (निधीयस्व) = निवास कर । तेरा निवासस्थान बाधाओं से शून्य व विशाल हो। २. (जीवन) = जीता हुआ—प्राणों का धारण करता हुआ तू (या:) = जिन (स्वधाः) = स्वधाओं को-वृद्ध माता-पिता के लिए आदरपूर्वक अन्न-प्रदानों को [पितृभ्य: स्वधा] (चकृषे) = करता है, (ता:) = वे सब स्वधाएँ (ते) = तेरे लिए (मधुश्चत: सन्तु) = मधु को क्षरित करनेवाली-आनन्द-रस प्रवाहित करनेवाली हों। वृद्ध माता-पिता से दिया गया आशीर्वाद तुम्हारी समृद्धि व आनन्द का कारण बने।
भावार्थ - हमारे घर विशाल व सम्बाधाशून्य हों। उनमें हम पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक अन्नों को प्राप्त कराएँ। यह पितृयज्ञ हमारे जीवनों को मधुर बनाये।
इस भाष्य को एडिट करें