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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 55
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आयु॑र्वि॒श्वायुः॒ परि॑ पातु त्वा पू॒षा त्वा॑ पातु॒ प्रप॑थे पु॒रस्ता॑त्।यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ त ई॒युस्तत्र॑ त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑: । वि॒श्वऽआ॑यु: । परि॑ । पा॒तु॒ । त्वा॒ । पू॒षा । त्वा॒ । पा॒तु॒ । प्रऽप॑थे । पु॒रस्ता॑त् । यत्र॑ । आस॑ते । सु॒ऽकृत॑: । यत्र॑ । ते । ई॒यु: । तत्र॑ । त्वा॒ । दे॒व: । स॒वि॒ता । द॒धा॒तु॒ ॥२.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुर्विश्वायुः परि पातु त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात्।यत्रासते सुकृतो यत्र त ईयुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयु: । विश्वऽआयु: । परि । पातु । त्वा । पूषा । त्वा । पातु । प्रऽपथे । पुरस्तात् । यत्र । आसते । सुऽकृत: । यत्र । ते । ईयु: । तत्र । त्वा । देव: । सविता । दधातु ॥२.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 55

    पदार्थ -
    १. (आयुः) = [इण् गतौ], सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देनेवाला, (विश्वायु:) = [आयु: अन्नम् नि०२.७] सबके लिए अत्रों को प्राप्त करानेवाला (पूषा:) = पोषक प्रभु (त्वा परिपातु) = तेरा सर्वत्ररक्षण करे। यह प्रभु (त्वा) = तुझे (प्रपथे) = उत्कृष्ट मार्ग में (पुरस्तात् पातु) = आगे से रक्षित करे। प्रभु हमें उत्तम अन्नों को प्राप्त कराएँ और प्रशस्त मार्ग पर ले-चलें। सात्त्विक अन्नों से हमारी वृत्ति भी सात्विक ही बनेगी। २. (यत्र) = जिस मार्ग पर (सुकृत:) = पुण्यकर्मा लोग (आसते) = आसीन होते हैं, (यत्र) = जिस मार्ग पर (ते ईयु:) = वे गति करते हैं, (तत्र) = उस मार्ग पर (त्वा) = तुझे (सविता देव:) = प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (दधातु) = धारण करें।

    भावार्थ - प्रभु ही गति देनेवाले हैं, प्रभु ही सब अन्नों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु हमें उत्कृष्ट मार्ग पर ले-चलते हैं। उस मार्ग पर ले-चलते हैं, जिस मार्ग से पुण्यकर्मा लोग गति करते हैं।

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