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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उद॑ह्व॒मायु॒रायु॑षे॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य जी॒वसे॑। स्वान्ग॑च्छतु ते॒ मनो॒ अधा॑पि॒तॄँरुप॑ द्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒ह्व॒म् ।आयु॑: । आयु॑षे । क्रत्वे॑ । दक्षा॑य । जी॒वसे॑ । स्वान् । ग॒च्छ॒तु॒ । ते॒ । मन॑: । अध॑ । पि॒तॄन् । उप॑ । द्र॒व॒ ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदह्वमायुरायुषे क्रत्वे दक्षाय जीवसे। स्वान्गच्छतु ते मनो अधापितॄँरुप द्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अह्वम् ।आयु: । आयुषे । क्रत्वे । दक्षाय । जीवसे । स्वान् । गच्छतु । ते । मन: । अध । पितॄन् । उप । द्रव ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 23

    पदार्थ -
    १. मैं तेरे लिए (आयुः उद् अहम्) = आयु को पुकारता हूँ-तुझे आयुष्यवृद्धि का उपदेश करता हूँ, जिससे तू (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए हो, (क्रत्वे) = यज्ञादि कर्मों को करने के लिए होवे, (दक्षाय) = उन्नति व दक्षता के लिए होवे। अथवा 'प्राणो वै दक्षः, अपान: क्रतुः' [तै०२.५.२.४] इस वाक्य के अनुसार प्राण और अपान के लिए होवे और इसप्रकार जीवसे-दीर्घजीवन के लिए होवे। २. (ते मन:) = तेरा मन (स्वान् गच्छतु) = अपने बन्धुजनों के प्रति जाए-उनके प्रति प्रेम भी तुझे दीर्घजीवन की प्रेरणा दे। (अधा) = तथा (पितन् उपद्रव) = पितरों के समीप तू प्राप्त होनेवाला हो-उनके चरणों में बैठकर अपने कर्तव्यों का उपदेश ग्रहण करनेवाला बन।

    भावार्थ - हम आयुष्यवृद्धि के उपायों को जानकर दीर्घजीवन धारण करें। हमारा जीवन यज्ञमय हो-उन्नतिपथ पर हम आगे बढ़ें। अपनों के प्रति कर्तव्यों को निभानेवाले हों और बड़ों के चरणों में बैठकर उनसे उपदेश ग्रहण करें।

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