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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अ॒जोभा॒गस्तप॑स॒स्तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः। यास्ते॑शि॒वास्त॒न्वो जातवेद॒स्ताभि॑र्वहैनं सु॒कृता॑मु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । भा॒ग: । तप॑स: । तम् । त॒प॒स्व॒ । तम् । ते॒ । शो॒चि: । त॒प॒तु॒ । तम् । ते॒ । अ॒र्चि: । या: । ते॒ । शि॒वा: । त॒न्व᳡: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ताभि॑: । व॒ह॒ । ए॒न॒म् । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् ॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजोभागस्तपसस्तं तपस्व तं ते शोचिस्तपतु तं ते अर्चिः। यास्तेशिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । भाग: । तपस: । तम् । तपस्व । तम् । ते । शोचि: । तपतु । तम् । ते । अर्चि: । या: । ते । शिवा: । तन्व: । जातऽवेद: । ताभि: । वह । एनम् । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोकम् ॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. (अजः) = कभी न उत्पन्न होनेवाला [अज] अथवा गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला [अज् गतिक्षेपणयो:] प्रभु ही (भाग:) = तेरा उपास्य है [भज सेवायाम] (तम्) = उस प्रभु को (तपसः) = तप के द्वारा (तपस्व) = अपने अन्दर दीप्त कर-उस प्रभु के प्रकाश को तप के द्वारा देखनेवाला बन । (तम्) = उस प्रभु को (ते शोचि:) = तेरी शुचिता [पवित्रता] (तपतु) = दीप्त करे। (तम्) = उस प्रभु को (ते अर्चि:) = तेरी पूजा व उपासना दीप्त करे। प्रभु का दर्शन 'तप-पवित्रता-व उपासना' से होता है। २. हे (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाले उपासक! (या:) = जो तेरी (शिवाः तन्वः) = शिव तनु है-पवित्र कल्याणमय शरीर है, (ताभिः) = उन शरीरों से एनं वह इस प्रभु को अपने अन्दर धारण कर। उस प्रभु को धारण कर, जो (उ) = निश्चय से (सुकृतां लोकम्) = पुण्यशील लोगों के निवासस्थान हैं अथवा पुण्यशील लोगों को प्रकाश प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ - हम 'तप, पवित्रता व ज्ञानदीति तथा उपासना' से शरीरों को निर्दोष बनाते हुए उस प्रभु को धारण करनेवाले बनें, जिन प्रभु में पुण्यशील लोग निवास करते हैं।

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