अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 59
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
द॒ण्डंहस्ता॑दा॒ददा॑नो ग॒तासोः॑ स॒ह श्रोत्रे॑ण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न। अत्रै॒व त्वमि॒हव॒यं सु॒वीरा॒ विश्वा॒ मृधो॑ अ॒भिमा॑तीर्जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठद॒ण्डम् । हस्ता॑त् । आ॒ऽददा॑न: । ग॒तऽअ॑सो: । स॒ह । श्रोत्रे॑ण । वर्च॑सा । बले॑न । अत्र॑ । ए॒व । त्वम् । इ॒ह । व॒यम् । सु॒ऽवीरा॑: । विश्वा॑: । मृध॑: । अ॒भिऽमा॑ती: । ज॒ये॒म॒ ॥२.५९॥
स्वर रहित मन्त्र
दण्डंहस्तादाददानो गतासोः सह श्रोत्रेण वर्चसा बलेन। अत्रैव त्वमिहवयं सुवीरा विश्वा मृधो अभिमातीर्जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठदण्डम् । हस्तात् । आऽददान: । गतऽअसो: । सह । श्रोत्रेण । वर्चसा । बलेन । अत्र । एव । त्वम् । इह । वयम् । सुऽवीरा: । विश्वा: । मृध: । अभिऽमाती: । जयेम ॥२.५९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 59
विषय - सवीर, न कि गतासु [मृतप्राय-सा]
पदार्थ -
१. जो व्यक्ति उत्साहशून्य जीवनवाला मृतप्राय-सा होता है उस (गतासो:) = गतप्राण [मृतप्राय] व्यक्ति के (हस्तात्) = हाथ से (दण्डम्) = दमनशक्ति को (आददान:) = छीन लेते हुए, हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (श्रोत्रेण) = ज्ञान-प्राप्ति की साधनभूत श्रवणशक्ति के साथ (वर्चसा बलेन सह) = रोगों से मुकाबला करनेवाली 'वर्चस्' शक्ति के साथ तथा शत्रुओं से मुकाबला करनेवाले बल के साथ (अत्र एव) = यहाँ ही हमारे जीवन में होओ। २. इह यहाँ इस जीवन में (वयम्) = हम (सुवीरा:) = उत्तम वीर बनते हुए (विश्वा:) = सब (मृधः) = हिंसन करनेवाली (अभिमाती:) = शत्रुभूत अभिमान आदि भावनाओं को (जयेम) = जीतनेवाले हों। सब शत्रुओं को जीतकर हम इस जीवन में सुखी हों और आपको प्राप्त करनेवाले हों।
भावार्थ - प्रभु निरुत्साही [गतप्राण से] व्यक्ति के हाथ से दमनशक्ति को छीन लेते हैं। वे प्रभु श्रोत्र, वर्चस् व बल' के साथ हमारे जीवन में हों। हम बीर बनकर विनाशक अभिमान आदि वृत्तियों को पराभूत करनेवाले हों।
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