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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    शं त॑प॒ माति॑तपो॒ अग्ने॒ मा त॒न्वं तपः॑। वने॑षु॒ शुष्मो॑ अस्तु ते पृथि॒व्याम॑स्तु॒यद्धरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । त॒प॒ । मा । अति॑ । त॒प॒: । अग्ने॑ । मा । त॒न्व᳡म् । तप॑: । वने॑षु । शुष्म॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । पृ॒थि॒व्याम् । अ॒स्तु॒ । यत् । हर॑: ॥२.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं तप मातितपो अग्ने मा तन्वं तपः। वनेषु शुष्मो अस्तु ते पृथिव्यामस्तुयद्धरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । तप । मा । अति । तप: । अग्ने । मा । तन्वम् । तप: । वनेषु । शुष्म: । अस्तु । ते । पृथिव्याम् । अस्तु । यत् । हर: ॥२.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 36

    पदार्थ -
    १. है (अग्ने) = अग्रणी आचार्य [अग्निराचार्यस्तव]! इस विद्यार्थी को शान्त जीवनवाला बनाने के लिए तपस्या में ले-चल, इसे (शं तप) = सुखकर तप करा, परन्तु (मा अति तपः) = मर्यादा से अधिक तप्त न करा। (तन्वं मा तपः) = इसके शरीर को संतप्त मत कर डाल। 'शरीरमबाधमानेन तपः आसेव्यम्' शरीर को न पीड़ित करते हुए ही तो तप करना चाहिए। २. हे आचार्य ! (वनेषु) = संभजनीय कर्मों में (ते) = आपका (शुष्मः) = बल (अस्तु) = हो तथा (यत्) = जो (हर:) = रोगों का हरण करनेवाला तेज है, वह (पृथिव्याम् अस्तु) = इस शरीररूप पृथिवी में हो। सेवनीय कर्मों को करते हुए हम शक्तिशाली बनें तथा शरीर में वह शक्ति हो जो हमें नीरोग बनाये रक्खे। आचार्य विद्यार्थी को ऐसा ही बनाने का यत्न करें।

    भावार्थ - आचार्य विद्यार्थी को तपस्या की अग्नि में समुचितरूप से तप्त कराते हुए शान्त जीवनवाला बनाएँ। तपस्या में भी मर्यादा अपेक्षित है-शरीर को सन्तप्त नहीं कर देना। संभजनीय कर्मों को करते हुए विद्यार्थी सशक्त बनें और शरीर में रोगों का हरण करनेवाले तेज से युक्त हों।

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