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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    सूक्त - जातवेदा देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    य॒दा शृ॒तंकृ॒णवो॑ जातवे॒दोऽथे॒ममे॑नं॒ परि॑ दत्तात्पि॒तृभ्यः॑। य॒दोगच्छा॒त्यसु॑नीतिमे॒तामथ॑ दे॒वानां॑ वश॒नीर्भ॑वाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । शृ॒तम् । कृ॒णव॑: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अथ॑ । इ॒मम् । ए॒न॒म् । परि॑ । द॒त्ता॒त् । पि॒तृऽभ्य॑: । य॒दो इति॑ । गच्छा॑ति । असु॑ऽनीतिम् । ए॒ताम् । अथ॑ । दे॒वाना॑म् । व॒श॒ऽनी: । भ॒वा॒ति॒ ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा शृतंकृणवो जातवेदोऽथेममेनं परि दत्तात्पितृभ्यः। यदोगच्छात्यसुनीतिमेतामथ देवानां वशनीर्भवाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । शृतम् । कृणव: । जातऽवेद: । अथ । इमम् । एनम् । परि । दत्तात् । पितृऽभ्य: । यदो इति । गच्छाति । असुऽनीतिम् । एताम् । अथ । देवानाम् । वशऽनी: । भवाति ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे (जातवेदः) = ज्ञानी आचार्य! आप (यदा) = जब (भृतं कृणवः) = शिष्य को ज्ञानपरिपक्व कर देते हैं, (अथ) = तो (ईम) = अब (एनम्) = इसको (पितृभ्यः) = अपने माता-पिता के लिए (परिदत्तात्) = वापस देने का अनुग्रह करें। २. आचार्यकुल में रहता हुआ (यदा) = जब (उ) = निश्चय से (एताम् असुनीतिम्) = इस प्राणविद्या को-जीवन-नीति को (गच्छाति) = अच्छी प्रकार प्राप्त कर लेता है, (अथ) = तब यह ज्ञान को प्राप्त पुरुष (देवानाम्) = सब देवों का-इन्द्रियों का (वशनी:) = वश में करनेवाला (भवाति) = होता है। प्राणसाधना द्वारा यह शरीरस्थ सब देवों को स्वस्थ व स्वाधीन देखता है। सूर्य आदि देवों के साथ इसकी अनुकूलता होती है।

    भावार्थ - आचार्यकुल में प्राणविद्या व प्राणसाधना करके हम इन्द्रियों को वश में करनेवाले हों। सब देवों को हम वशीभूत कर पाएँ।

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