अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॑मायघृ॒तव॒त्पयो॒ राज्ञे॑ ह॒विर्जु॑होतन। स नो॑ जी॒वेष्वा य॑मेद्दी॒र्घमायुः॒ प्रजी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒माय॑ । घृ॒तऽव॑त् । पय॑: । राज्ञे॑ । ह॒वि: । जु॒हो॒त॒न॒ । स: । न॒: । जी॒वेषु॑ । आ । य॒मे॒त् । दी॒र्घम् । आयु॑: । प्र । जी॒वसे॑ ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यमायघृतवत्पयो राज्ञे हविर्जुहोतन। स नो जीवेष्वा यमेद्दीर्घमायुः प्रजीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठयमाय । घृतऽवत् । पय: । राज्ञे । हवि: । जुहोतन । स: । न: । जीवेषु । आ । यमेत् । दीर्घम् । आयु: । प्र । जीवसे ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - घृतं, पयः, हवि:
पदार्थ -
१. (यमाय) = सर्वनियन्ता प्रभु की प्राप्ति के लिए (राज्ञे) = सबके शासक प्रभु के लिए (घृतबत् पयः हविः) = घृत की भाँति दूध को-अथवा घृतवाले दूध को तथा यज्ञशेषान्न को [हु-दानपूर्वक अदन] (जुहोतन) = जाठराग्नि में आहुत करनेवाले बनो। हम 'घृत, दुग्ध व यज्ञिय अन्नों' का सेवन करते हुए सात्त्विक बुद्धिवाले बनकर प्रभुदर्शन के योग्य बनेंगे। २. (स:) = वह प्रभु (न:) = हमारे लिए (जीवेषु) = सब जीवों में (प्रजीवसे) = प्रकृष्ट जीवन के लिए (दीर्घम् आयु:) = दीर्घ जीवन (आयमेत्) = दें। इस दीर्घजीवन में साधना करते हुए हम अधिकाधिक पवित्र जीवनवाले बनें।
भावार्थ - हम सर्वनियन्ता, सर्वरक्षक प्रभु की प्राप्ति के लिए 'घृत-दुग्ध व यज्ञिय भोजनों' का ही प्रयोग करें। दीर्घ जीवन प्राप्त करके साधना द्वारा उसे प्रकृष्ट बनाने के लिए यत्नशील हों।
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