अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ये दस्य॑वःपि॒तृषु॒ प्रवि॑ष्टा ज्ञा॒तिमु॑खा अहु॒ताद॒श्चर॑न्ति। प॑रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ येभर॑न्त्य॒ग्निष्टान॒स्मात्प्र ध॑माति य॒ज्ञात् ॥
स्वर सहित पद पाठये । दस्य॑व: । पि॒तृषु॑ । प्रऽवि॑ष्टा: । ज्ञा॒ति॒ऽमु॒खा: । अ॒हु॒त॒ऽअद॑: । चर॑न्ति । प॒रा॒ऽपुर॑: । नि॒ऽपुर॑:। ये । भर॑न्ति । अ॒ग्नि: । तान् । अ॒स्मात् । प्र । ध॒मा॒ति॒ । य॒ज्ञात् ॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
ये दस्यवःपितृषु प्रविष्टा ज्ञातिमुखा अहुतादश्चरन्ति। परापुरो निपुरो येभरन्त्यग्निष्टानस्मात्प्र धमाति यज्ञात् ॥
स्वर रहित पद पाठये । दस्यव: । पितृषु । प्रऽविष्टा: । ज्ञातिऽमुखा: । अहुतऽअद: । चरन्ति । पराऽपुर: । निऽपुर:। ये । भरन्ति । अग्नि: । तान् । अस्मात् । प्र । धमाति । यज्ञात् ॥२.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
विषय - पितरों के रूप में दस्यु
पदार्थ -
१. (ये) = जो (दस्यवः) = [दस् उपक्षये] हमारा विनाश करनेवाले, (पितृषु प्रविष्टा:) = पितरों की श्रेणी में किसी प्रकार प्रविष्ट हो गये हैं, (ज्ञातिमुखा:) = [ज्ञातीनां मुखमिव मुखं येषाम्] हमारे सम्बन्धी प्रतीत होनेवाले (अहुतादः) = यज्ञों को किये बिना सब-कुछ खा जानेवाले (चरन्ति) = वहाँ समाज में विचरते हैं। (ये) = जो (परापुरः) = [पिण्डोदकं परापृणन्ति-पुत्राः, निपुणन्ति-पौत्रा:, नियमेन पृणन्ति] हमारे पुत्रों को तथा (निपुर:) = पौत्रों को (भरन्ति) = अपहत कर लेते है, अर्थात् उनके जीवनों को बिगाड़ देते हैं। (अग्नि:) = राष्ट्र का संचालक (तान्) = उन दुष्टों को (अस्मात् यज्ञात्) = इस राष्ट्रयज्ञ से [संघ से बने हुए राष्ट्र से] (प्रधमाति) = बाहर करदे [धमतिर्गतिकर्मा]। २. राजा का यह कर्तव्य है कि जो पितर अपना कर्तव्यपालन न करें, उन्हें दण्डित करे । इनके लिए सर्वोत्तम दण्ड यही है कि इन्हें राष्ट्र से निष्कासित कर दिया जाए। ये पितर वे हैं जोकि रक्षणात्मक कार्य के स्थान पर भक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। बन्धु का रूप धारण करके सब-कुछ खा जाते हैं और हमारे पुत्रों व पौत्रों का जीवन बिगाड़ देते हैं।
भावार्थ - राजा का यह कर्तव्य है कि दुष्ट पितरों को दण्डित करे, उन्हें राष्ट्र से निर्वासित ही कर दे।
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