अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॒माय॒ सोमः॑पवते य॒माय॑ क्रियते ह॒विः। य॒मं ह॑ य॒ज्ञो ग॑च्छत्य॒ग्निदू॑तो॒ अरं॑कृतः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒माय॑ । सोम॑: । प॒व॒ते॒ । य॒माय॑ । क्रि॒य॒ते॒ । ह॒वि: । य॒मम् । ह॒ । य॒ज्ञ: । ग॒च्छ॒ति॒ । अ॒ग्निऽदू॑त: । अर॑म्ऽकृत: ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यमाय सोमःपवते यमाय क्रियते हविः। यमं ह यज्ञो गच्छत्यग्निदूतो अरंकृतः ॥
स्वर रहित पद पाठयमाय । सोम: । पवते । यमाय । क्रियते । हवि: । यमम् । ह । यज्ञ: । गच्छति । अग्निऽदूत: । अरम्ऽकृत: ॥२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-प्राप्ति के साधन
पदार्थ -
१. (यमाय) = उस सर्वनियन्ता प्रभु की प्रासि के लिए (सोमः पवते) = [पूयते] सोम पवित्र किया जाता है। शरीर में सोम को-वीर्यशक्ति को वासना से मलिन व विनाश होने से बचाने पर ज्ञानाग्नि की दीप्ति के द्वारा प्रभुदर्शन होता है। (यमाय) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए ही (हवि:) = दानपूर्वक अदन-यज्ञशेष का सेवन (क्रियते) = किया जाता है। २. (यमम्) = उस सर्वनियन्ता प्रभु को (ह) = निश्चय से (यज्ञः) = देवपूजक, देव के साथ (संगतिकरण) = [मेल]-वाला, देव के प्रति अपना अर्पण करनेवाला व्यक्ति (गच्छति) = प्राप्त होता है। जो व्यक्ति (अग्निदूत:) = अग्निरूप दूतवाला है-उस अग्रणी प्रभु से ज्ञान के व स्वकर्तव्यों के संदेश को सुनता है तो (अरंकृतः) = सब दिव्यगुणों से अलंकृत जीवनवाला बनता है।
भावार्थ - प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [१] हम शरीर में सोम का रक्षण करें, [२] दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले हों [३] प्रभुपूजक-प्रभुमेल व प्रभु के प्रति अर्पण की वृत्तिवाले हों, [४] प्रभु से वेद में उपदिष्ट स्वकर्तव्यों के सन्देश को सुनें, [५] जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करें।
इस भाष्य को एडिट करें