अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्रिक॑द्रुकेभिःपवते॒ षडु॒र्वीरेक॒मिद्बृ॒हत्। त्रि॒ष्टुब्गा॑य॒त्री छन्दां॑सि॒ सर्वा॒ ता य॒मआर्पि॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिऽक॑द्रुकेभि: । प॒व॒ते॒ । षट् । उ॒र्वी: । एक॑म् । इत् । बृ॒हत् । त्रि॒ऽस्तुप:। गा॒य॒त्री । छन्दां॑सि । सर्वा॑ । ता । य॒मे । आर्पि॑ता ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेभिःपवते षडुर्वीरेकमिद्बृहत्। त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यमआर्पिता ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽकद्रुकेभि: । पवते । षट् । उर्वी: । एकम् । इत् । बृहत् । त्रिऽस्तुप:। गायत्री । छन्दांसि । सर्वा । ता । यमे । आर्पिता ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
विषय - यम का सुन्दरतम जीवन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र का साधक (त्रिकद्रुकेभिः) = [कदि आह्वानेषु] तीनों कालों में प्रभु के आह्वान के साथ (पवते) = चलता है। प्रात:, मध्याह्न व सायं-तीनों समय प्रभु की प्रार्थना करता है। प्रात:काल जीवन के प्रथम २४ वर्ष हैं, मध्याह अगले ४४ वर्ष हैं और सायं अन्तिम ४८ वर्ष हैं। इन सबमें यह प्रभु-प्रार्थना से जीवन को सशक्त व उत्साहमय बनाये रखता है। अथवा "ज्योतिः, गौः, आयुः' नामक तीन यागविशेष त्रिकद्रुक हैं। यह साधक इन यागों को करता हुआ जीवन में चलता है। साधना द्वारा ज्ञान 'ज्योति' का सम्पादन करता है, प्राणसाधना द्वारा इन्द्रियों को [गौ:] शुद्ध बनता है और क्रियाशीलता के द्वारा दीर्घ व उत्तम 'आयुष्य-बाला होता है। २. इसके जीवन में (षड् उर्वी:) = 'धौ च पृथिवी च आपश्च ओषधयश्च ऊर्ध्वं च सूनृता च' द्युलोक, अर्थात् ज्ञानदीस मस्तिष्क, पृथिवी, अर्थात् विस्तृतशक्तिसम्पन्न शरीर, आपः अर्थात् रेत:कण [आपो रेतो भूत्वा०] ओषधयः-दोषों का दहन करनेवाले सात्विक अन्न, ऊर्क-बल और प्राणशक्ति तथा सूनृता-प्रिय सत्यात्मिकावाणी-ये छह उर्वियों (आहिताः) = स्थापित होती हैं। (एकम् इत् बृहत्) = इसका शरीर में केन्द्र-स्थान में स्थापित सबसे महत्त्वपूर्ण साधन 'मन' [हृदय] निश्चय से विशाल होता है [ज्योतिषां ज्योतिरेकम्] ३. इसप्रकार (यमे) = इस साधनामय जीवनवाले संयमी पुरुष में (ताः सर्वा:) = आगे वर्णित सब बातें (अर्पिता) = अर्पित होती हैं-स्थापित होती हैं। एक तो (त्रिष्टुप्) = 'काम, क्रोध, लोभ' इन तीनों को रोक देना दूसरे (गायत्री) = [गवा: प्राणास्तान् तत्रे] प्राणों का रक्षण तथा (छन्दांसि) = पापों का छादन-बुरी वृत्तियों का दूरीकरण।
भावार्थ - हम सदा प्रभुस्मरण के साथ चलें। हमारे शरीर व मस्तिष्क दोनों ही ठीक हों, जलों व ओषधियों का प्रयोग करते हुए शक्ति का रक्षण करें, प्राणशक्ति व सूनृतवाणीवाले हों। हमारा हृदय विशाल हो। 'काम, क्रोध, लोभ' को रोकें। प्राणों का रक्षण करें। पापों से अपने को दूर रखें।
इस भाष्य को एडिट करें