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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    यां ते॑ धे॒नुंनि॑पृ॒णामि॒ यमु॑ ते क्षी॒र ओ॑द॒नम्। तेना॒ जन॑स्यासो भ॒र्ता योऽत्रास॒दजी॑वनः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । धे॒नुम् । नि॒ऽपृ॒णामि॑ । यम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । क्षी॒रे । ओ॒द॒नम् । तेन॑ । जन॑स्य । अ॒स॒: । भ॒र्ता । य: । अत्र॑ । अस॑त् । अजी॑वन: ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते धेनुंनिपृणामि यमु ते क्षीर ओदनम्। तेना जनस्यासो भर्ता योऽत्रासदजीवनः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । धेनुम् । निऽपृणामि । यम् । ऊं इति । ते । क्षीरे । ओदनम् । तेन । जनस्य । अस: । भर्ता । य: । अत्र । असत् । अजीवन: ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    १. हे वनस्थ पित: ! (याम्) = जिस (ते) = आपके लिए (धेनुम्) = गौ को (निपूणामि) = देता हूँ, (उ) = और (यम्) = जिस (क्षीरे आदेनम्) = दूध में पकाये गये भोजन को-मिष्टान्नादि को (ते) = आपके लिए देता हूँ, (तेन) = उस गौ व क्षीरान्नों से उस (जनस्य) = मनुष्य का आप (भर्ता अस:) = भरणकरनेवाले हो, (य:) = जो (अत्र) = यहाँ (अजीवनः असत्) = जीविका से रहित हो-जिसमें जीविका के अपार्जन की क्षमता न हो।

    भावार्थ - लूले, लंगड़ें व्यक्ति नगर में ही भीख न माँगते रहें। इनके वनों में आश्रम हों। वहाँ वानप्रस्थ पितरों के द्वारा इनकी व्यवस्था की जाए। इन वानप्रस्थ पितरों के लिए नागरिक आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराते रहें।

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