अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॒मः परोऽव॑रो॒विव॑स्वा॒न्ततः॒ परं॒ नाति॑ पश्यामि॒ किं च॒न। य॒मे अ॑ध्व॒रो अधि॑ मे॒निवि॑ष्टो॒ भुवो॒ विव॑स्वान॒न्वात॑तान ॥
स्वर सहित पद पाठय॒म: । पर॑: । अव॑र: । विव॑स्वान् । तत॒: । पर॑म् । न । अति॑ । प॒श्या॒मि॒ । किम् । च॒न । य॒मे । अ॒ध्व॒र: । अधि॑ । मे॒ । निऽवि॑ष्ट: । भुव॑: । विव॑स्वान् । अ॒नुऽआ॑ततान ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
यमः परोऽवरोविवस्वान्ततः परं नाति पश्यामि किं चन। यमे अध्वरो अधि मेनिविष्टो भुवो विवस्वानन्वाततान ॥
स्वर रहित पद पाठयम: । पर: । अवर: । विवस्वान् । तत: । परम् । न । अति । पश्यामि । किम् । चन । यमे । अध्वर: । अधि । मे । निऽविष्ट: । भुव: । विवस्वान् । अनुऽआततान ॥२.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 32
विषय - परोवरः यमः
पदार्थ -
१. प्रभुस्मरण ही हमें उत्तम जीवनवाला बनाता है, अत: साधक प्रभुस्मरण करता हुआ कहता है कि-(यमः) = सर्वनियन्ता प्रभु (परः अवर:) = दूर-से-दूर है और समीप-से-समीप है। 'दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च'। (विवस्वान्) = वह ज्ञान की किरणोंवाला है-अपनी ज्ञानकिरणों से साधकों के हृदयान्धकार को नष्ट करता है। (ततः परम्) = उस प्रभु से उत्कृष्ट मैं (किंचन न अतिपश्यामि) = किसी भी वस्तु को नहीं देखता हूँ। वह प्रत्येक गुण की चरमसीमा है। २. यह (मे अध्वर:) = मेरा यज्ञ (यमे अधिपश्यामि) = उस नियन्ता प्रभु में ही स्थित है-प्रभु के आधार से ही इस यज्ञ की पूर्ति होती है। 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । वस्तुत: प्रभु ही होता' है, हम तो बीच में निमित्तमात्र बनते हैं। ये (विवस्वान्) = सूर्यसम दीप्त प्रभु (भुवः) = सब लोकों को (अन्वाततान) = अनुकूलता से विस्तृत किये हुए हैं। इन लोकों को वे प्रभु ही विस्तृत करनेवाले हैं। उस प्रभु का प्रकाश ही लोकों में सर्वत्र फैला हुआ है।
भावार्थ - सर्वनियन्ता प्रभु सर्वव्यापक हैं, प्रभु से महान् और कुछ भी नहीं। प्रभु ही हमारे यज्ञों के पालक हैं और प्रभु ने ही सब लोकों को आलोकित किया हुआ है।
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