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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 51
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒दमिद्वा उ॒नाप॑रं ज॒रस्य॒न्यदि॒तोऽप॑रम्। जा॒या पति॑मिव॒ वास॑सा॒भ्येनं भूम ऊर्णुहि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । न । अप॑रम् । ज॒रसि॑ । अ॒न्यत् । इ॒त: । अप॑रम् । जा॒या । पति॑म्ऽइव । वास॑सा । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥२.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमिद्वा उनापरं जरस्यन्यदितोऽपरम्। जाया पतिमिव वाससाभ्येनं भूम ऊर्णुहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । इत् । वै । ऊं इति । न । अपरम् । जरसि । अन्यत् । इत: । अपरम् । जाया । पतिम्ऽइव । वाससा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥२.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 51

    पदार्थ -
    १. (इदम् इत् वा उ) = यह हृदयों में धोतित होनेवाला प्रभु ही निश्चय से है, (न अपरम्) = इसके समान और कोई नहीं 'अन्यत् सर्वमार्तम् । (जरसि) = उस प्रभु का स्तवन होने पर (अन्यत्) = और सब-कुछ (इत: अपरम्) = इससे अपर है-नीचे है। प्रभु ही सर्वमहान् हैं। 'महतो महीयान् । २. भक्त प्रार्थना करता है कि हे (भूमे) = सबके निवासस्थानभूत प्रभो! इव जाया जैसे एक पत्नी (वासा) = वस्त्र से (पतिम्) = पति को आच्छादित कर लेती है, इसीप्रकार आप (एनम्) = इस भक्त को (अभि ऊणुर्हि सर्वत:) = आच्छादित करनेवाले होवें।

    भावार्थ - प्रभु सर्वमहान् हैं। वही स्तुति के योग्य हैं। प्रभु अपने भक्त को इसप्रकार सुरक्षित कर लेते हैं जैसे पत्नी पति को।

    सूचना - इस दृष्टान्त में भक्त कवियों के रहस्यवाद की गन्ध स्पष्ट है।

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