अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
सूर्यं॒ चक्षु॑षागच्छ॒ वात॑मा॒त्मना॒ दिवं॑ च॒ गच्छ॑ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑भिः। अ॒पो वा॑ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ते हि॒तमोष॑धीषु॒ प्रति॑ तिष्ठा॒ शरी॑रैः ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑म् । चक्षु॑षा । ग॒च्छ॒ । वात॑म् । आ॒त्मना॑ । दिव॑म् । च॒ । गच्छ॑ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । धर्म॑ऽभि: । अ॒प: । वा॒ । ग॒च्छ॒ । यदि॑ । तत्र॑ । ते॒ । हि॒तम् । ओष॑धीषु । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । शरी॑रै: ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यं चक्षुषागच्छ वातमात्मना दिवं च गच्छ पृथिवीं च धर्मभिः। अपो वा गच्छ यदि तत्रते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यम् । चक्षुषा । गच्छ । वातम् । आत्मना । दिवम् । च । गच्छ । पृथिवीम् । च । धर्मऽभि: । अप: । वा । गच्छ । यदि । तत्र । ते । हितम् । ओषधीषु । प्रति । तिष्ठ । शरीरै: ॥२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
विषय - सूर्य आदि देवों के साथ सम्पर्क से शरीर का स्वास्थ्य सूर्य
पदार्थ -
१. तू (चक्षुषा) = चक्षु के हेतु से (सूर्यं गच्छ) = सूर्य के प्रति जा। सूर्य ही तो चक्षु का रूप धारण करके आँखों में प्रवेश करता है 'सूर्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत् । सूर्याभिमुख होकर हम प्रभु का ध्यान करते हैं और सूर्य आँखों में शक्ति प्राप्त कराता है। (आत्मना) = [आत्मा प्राणाः, सा०] प्राणों के हेतु से (वातम्) = वायु की ओर जा। शुद्ध वायु में प्राणायाम के द्वारा प्राणशक्ति का वर्धन होता ही है। (दिवं च गच्छ) = द्युलोक की ओर तू जानेवाला बन। अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को तू विज्ञान के नक्षत्रों से और ज्ञान के सूर्य से दीप्त करनेवाला हो (च) = और (धर्मभि:) = अंग-प्रत्यंग के धारण के उद्देश्य से तू (पृथिवीं गच्छ) = शरीररूप पृथिवी की ओर जानेवाला बन। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पृथिवी से सम्पर्क आवश्यक है। मिट्टी शरीर के विषों को बैंच लेती है। २. इसीप्रकार तू (अपः गच्छ) = जलों की ओर जानेवाला बन । शरीर में जल रेत:कणों के रूप में रहते हैं। यदि तत्र ते (हितम्) = यदि वहाँ तेरा हित है तो तू इन रेत:कणों की ओर जानेवाला बन। इन रेतःकणों का रक्षण आवश्यक ही है। तू (शरीरैः) = अपने 'स्थूल-सूक्ष्म व कारण' शरीरों के हेतु से ओषधीषु प्रतितिष्ठा-ओषधियों में प्रतिष्ठित हो। वानस्पतिक भोजनों के द्वारा हमारे सब शरीर ठीक रहते हैं।
भावार्थ - सूर्य आदि देवों के साथ हमारी अनुकूलता बनी रहे। शरीरों के स्वास्थ्य के लिए वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग करें। देव वनस्पति का ही सेवन करते हैं। मांस देवों का भोजन नहीं है।
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