अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
मैन॑मग्ने॒ विद॑हो॒ माभि॑ शूशुचो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम्। शृ॒तं य॒दा कर॑सिजातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तॄँरुप॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । ए॒न॒म् । अ॒ग्ने॒ । वि । द॒ह॒: । मा । अ॒भि । शू॒शु॒च॒:। मा । अ॒स्य॒ । त्वच॑म् । चि॒क्षि॒प॒: । मा । शरी॑रम् । शृ॒तम् । य॒दा । कर॑सि । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अथ॑ । ई॒म् । ए॒न॒म् । प्र । हि॒नु॒ता॒त् । पि॒तॄन् । उप॑ ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मैनमग्ने विदहो माभि शूशुचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम्। शृतं यदा करसिजातवेदोऽथेमेनं प्र हिणुतात्पितॄँरुप ॥
स्वर रहित पद पाठमा । एनम् । अग्ने । वि । दह: । मा । अभि । शूशुच:। मा । अस्य । त्वचम् । चिक्षिप: । मा । शरीरम् । शृतम् । यदा । करसि । जातऽवेद: । अथ । ईम् । एनम् । प्र । हिनुतात् । पितॄन् । उप ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
विषय - तप व दण्ड की उचित व्यवस्था
पदार्थ -
१. ज्ञान देनेवाले आचार्य भी पितर हैं। विद्यार्थी को अग्रगति कराने से ये 'अग्नि' कहलाते हैं। माता-पिता इस अग्नि के प्रति विद्यार्थी को प्राप्त करा देते हैं। वह आचार्यरूप अग्नि इन्हें तीव्र तपस्या में ले-चलता है, परन्तु इतना अतिमात्र तप भी ठीक नहीं जो उसके शरीर को अतिक्षीण ही कर डाले, अत: मन्त्र में कहते हैं कि हे (अग्ने) = अग्रणी आचार्य! (एनम्) = इस आपके प्रति अर्पित शिष्य को (मा विदहः) = तपस्या की अग्नि में भस्म ही न कर दीजिए। 'शरीरमबाधमानेन तप आसेव्यम्' शरीर को पीड़ित न करते हुए ही तप करना ठीक है। इसे अतिक्षीण करके (मा अभिशशच:) = शोकयुक्त ही न कर दीजिए। यह शोकातुर हो घर को ही न याद करता रहे। २. तप के अतिरिक्त शिक्षा में दण्ड भी अनिवार्य हो जाता है, परन्तु क्रोध में कभी अधिक दण्ड न दे दिया जाए। हे आचार्य! (अस्य त्वचं मा चिक्षिप:) = इसकी त्वचा को ही न क्षित कर देना-चमड़ी ही न उधेड़ देना। (मा शरीरम्) = इसका शरीर विक्षिप्त न हो जाए, अर्थात् दण्ड के कारण इसका कोई अंग भंग ही न हो जाए। संक्षेप में, न तप ही अतिमात्र हो और न दण्ड। शरीर को अबाधित करनेवाला तप हो और अमृतमय हाथों से ही दण्ड दिया जाए। ३. इसप्रकार तप व दण्ड की उचित व्यवस्था से (यत्) = जब हे (जातवेदः) = ज्ञानी आचार्य। आप (भूतं आकरसि) = इस विद्यार्थी को ज्ञान में परिपक्व कर चुकें, (अथ) = तब (ईम्) = अब (एनम्) = इस विद्यार्थी को (पितॄन् उप प्रहिणुतात्) = जन्मदाता माता-पिता के समीप भेजने का अनुग्रह करें। आचार्यकुल में ज्ञानाग्नि में परिपक्व होकर यह विद्यार्थी समावृत्त होकर आज घर में आता है।
भावार्थ - आचार्य, उचित तप व दण्ड-व्यवस्था रखते हुए विद्यार्थी को ज्ञान-परिपक्व करते हैं और अध्ययन की समाप्ति पर उसे पितगृह में वापस भेजते हैं। यही इसका समावर्तन है।
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