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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 47
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ये अग्र॑वःशशमा॒नाः प॑रे॒युर्हि॒त्वा द्वेषां॒स्यन॑पत्यवन्तः। ते द्यामु॒दित्या॑विदन्तलो॒कं नाक॑स्य पृ॒ष्ठे अधि॒ दीध्या॑नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अग्र॑व: । श॒श॒मा॒ना: । प॒रा॒ऽई॒यु: । हि॒त्वा । द्वेषां॑सि । अन॑पत्यऽवन्त: । ते । द्याम् । उ॒त्ऽइत्य॑ । अ॒वि॒द॒न्त॒ । लो॒कम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । अधि॑ । दीध्याना॑: ॥२.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्रवःशशमानाः परेयुर्हित्वा द्वेषांस्यनपत्यवन्तः। ते द्यामुदित्याविदन्तलोकं नाकस्य पृष्ठे अधि दीध्यानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्रव: । शशमाना: । पराऽईयु: । हित्वा । द्वेषांसि । अनपत्यऽवन्त: । ते । द्याम् । उत्ऽइत्य । अविदन्त । लोकम् । नाकस्य । पृष्ठे । अधि । दीध्याना: ॥२.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 47

    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (अग्रवः) = अग्नगतिवाले, अग्नु [ummarried] गृहस्थ में अनासक्त [अविवाहित], (शशमानाः) [शंसमानाः] = प्रभु-स्तवन करते हुए अथवा [शश प्लुतगती] प्लुतगति से कर्तव्यकों को करते हुए (द्वेषांसि हित्वा) = सब प्रकार के द्वेषभावों को छोड़कर (अनपत्यवन्तः) = सन्तानों के चक्कर में न पड़े हुए. अथवा ऐश्वर्यशाली [पत्यते एश्वर्यकर्मण:]-ज्ञान के ऐश्वर्य से सम्पन्न पुरुष (परयः) = [परा ईयुः] सब दुरितों से दूर गतिवाले होते हैं। (ते) = वे (द्याम् उत् इत्य) = पृथिवीलोक से अन्तरिक्ष में और अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर धुलोक में (लोकम् अविदन्त) = प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करते है-ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं 'दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वज्योतिरगामहम्'। २. ये व्यक्ति नाकस्य पृष्ठे स्वर्गलोक के पृष्ठ पर (अधिदीध्याना:) = आधिक्येन दीप्त होते हैं। ये सुखमय व दीतजीवनवाले होते हैं। वस्तुतः प्रभु की दीप्ति से इनका जीवन दीस बनता है।

    भावार्थ - हम अग्रगतिवाले, प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले, द्वेषशून्य, ज्ञानेश्वर्य पूर्ण बनकर प्रभु के प्रकाश को देखनेवाले बनें तभी हमारा जीवन सुखमय व दीप्त होगा।

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