अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 58
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अ॒ग्नेर्वर्म॒परि॒ गोभि॑र्व्ययस्व॒ सं प्रोर्णु॑ष्व॒ मेद॑सा॒ पीव॑सा च। नेत्त्वा॑धृ॒ष्णुर्हर॑सा॒ जर्हृ॑षाणो द॒धृग्वि॑ध॒क्षन्प॑री॒ङ्खया॑तै ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने: । वर्म॑ । परि॑ । गोभि॑: । व्य॒य॒स्व॒ । सम् । प्र । ऊ॒र्णु॒ष्व॒ । मेद॑सा । पीव॑सा । च॒ । न । इत् । त्वा॒ । धृ॒ष्णु: । हर॑सा । जर्हृ॑षाण: । द॒धृक् । वि॒ऽध॒क्षन् । प॒रि॒ऽई॒ङ्ख्या॑तै ॥२.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्वर्मपरि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व मेदसा पीवसा च। नेत्त्वाधृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधृग्विधक्षन्परीङ्खयातै ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने: । वर्म । परि । गोभि: । व्ययस्व । सम् । प्र । ऊर्णुष्व । मेदसा । पीवसा । च । न । इत् । त्वा । धृष्णु: । हरसा । जर्हृषाण: । दधृक् । विऽधक्षन् । परिऽईङ्ख्यातै ॥२.५८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 58
विषय - प्रभुरूप कवच के अभाव में 'काम' का आक्रमण
पदार्थ -
१. हे साधक! तू (गोभि:) = वेदवाणियों के द्वारा (अग्ने: वर्म परिव्ययस्व) = उस प्रभुरूप कवच को धारण करनेवाला बन। प्रभु तेरे कवच हों। इसके लिए वेदवाणियों का अध्ययन तेरा साधन हो, (च) = औरत अपने शरीर को भी (पीवसा मेदसा) = मज्जा तथा मेदस् तत्त्व-स्थौल्य व चर्बी से भी (संप्रोर्णुष्व) = सम्यक् आच्छादित कर। तेरा शरीर दुबला-पतला-सा न हो। ऐसा व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव का बन जाता है। शरीर भरा हुआ हो और मनुष्य प्रभु-स्मरण में चलता हो, तब वह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता। २. तू प्रभु को कवच बना तथा शरीर भी तेरा भरा हुआ हो, जिससे (त्वा) = तुझे यह 'काम' रूप शत्रु न इत् परीक्षयातै चारों ओर से घेर न ले तुझे यह अपने वशीभूत न कर ले। यह काम (धृषणु:) = धर्षण करनेवाला है-हमें कुचल डालनेवाला है। (इरसा जर्हृषाण:) = विषयों में हरण के द्वारा रोमाञ्चित करनेवाला है। (दधृक्) = पकड़ लेनेवाला है-इससे पीछा छुड़ाना बड़ा कठिन है। (विधक्षन्) = यह हमें भस्म कर डालनेवाला है।
भावार्थ - 'काम' के आक्रमण से हम तभी बच सकते हैं यदि प्रभु-स्मरणरूप कवच हमने धारण किया हुआ हो और हमारा शरीर अस्थि-पंजर-सा न होकर भरा व सुदृढ़ हो।
इस भाष्य को एडिट करें